Sunday, 14 April 2013

मुक्तक


पढ़ाई हो रही नहीं आभास होता है ।
फूल सी लाडली पर बाप को विश्वास होता है
किताबें लेके सज धज कर निकल जाती सुबह घर से
शाम तक पार्क में बेटी का एक्स्ट्रा क्लास होता है


खुशामद से या धमकी से वो घर को साध लेती हैं
झूठ अपराध होता है तो कर अपराध लेती हैं
कमर में हाथ डाले दोस्त के बाइक पे  निकलीं तो
वो अक्सर  अपने चेहरे पर दुपट्टा बाँध लेतीं हैं

 नहीं कॉलेज वो पिक्चर हाल को आबाद करती हैं
बहुत अंकुश है घर का खुद को यूँ आज़ाद करती हैं
जवानी में कहाँ इस बात का एहसास होता है
वो अपना करियर  ,धन बाप का बर्बाद करती हैं


मिला माइक तो बेसुर ही सही पर गाने लगते हैं
ये अपने त्याग को गाथाओं को  दोहराने लगते  हैं
जो काले धन या भ्रष्टाचार के कुछ प्रश्न पूछो तो
ये ज़िम्मेदार नेता खोपड़ी खुजलाने लगते हैं


जो अच्छा हो रहा है कुछ  वो  इनका यक्ष करता है
कभी छुप छुप के करता है कभी प्रत्यक्ष करता है
ये दंगे ,रेप , हत्याएं,डकैती  ,चोरियां सारी
है  इनका एक ही उत्तर कि ये प्रतिपक्ष  करता है

ये हैं सरकार  बैठे हैं बदल कर खोल कुर्सी में  ।
कभी इसको कभी उसको रहे हैं तोल कुर्सी में ।
शहर जलता है तो जल जाय ये हट ही नहीं सकते "
लगा है इस तरह का कोई फेविकोल कुर्सी में ॥

ये दिल वाले सियासतदान  ले इमदाद  बैठे हैं ।
कहीं मजनूं कहीं रांझा कहीं फरहाद बैठे हैं ।
नहीं लुटने  से पहले लड़कियों को होश आता है ,
कि  ये आशिक नहीं हैं हुश्न के जल्लाद  बैठे हैं ॥

तुझे इतना उठाएंगे जहां से दूर कर देंगे ।
ये नेता स्वप्न से आँखें तेरी भरपूर कर देंगे ।
जो मन भर जाएगा तो अपने रस्ते से हटा देंगे ,
नहीं तो आत्महत्या के लिए मजबूर कर देंगे ॥

ये पुल सड़कें चबायेंगे इन्हें कुछ भी नहीं होगा ।
ये दारु में नहायेंगे इन्हें कुछ भी  नहीं होगा ।
समोसे खा गए हो तुम तुम्हारा पेट फूलेगा ,
ये पूरा देश खायेंगे इन्हें कुछ भी नहीं होगा ॥
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