Sunday, 6 November 2011

परिचित लोग



नमस्ते ! हाल क्या है आपका , परिवार कैसा है |
इन दिनों दोस्ती का यह नया इज़हार कैसा है ||
बस इतना पूछ कर ही फ़र्ज़ पूरा हो गया उनका |
फ़क़त इंसानियत का क़र्ज़ पूरा हो गया उनका ||
वो देखो जा रहे हैं दौड़कर पीछे से जाओगे |
उन्हें फुर्सत नहीं है तुम व्यथा कैसे सुनाओगे ||
कहीं वह दर्द सुन भी लें तो ऐसा मुंह बनायेंगे |
कि जैसे बाप की अर्थी उठाने ये ही आयेंगे ||
ये हैं हमदर्दियों के घर ,इन्हें कुछ गम नहीं होता |
मगर चेहरे पे इनके भाव दुःख का कम नहीं होता ||
इन्हें अपना समझ कर यदि ख़ुशी अपनी बताते हो |
तरक्की की कथा अपनी,अगर इनको सुनाते हो ||
तो अपने दिल का दरवाजा ख़ुशी से खोल देंगे ये |
तो दावत हो गयी पक्की हमारी ,बोल देंगे ये ||
तुम्हारे गम या खुशियों की ,कहानी से नहीं मतलब |
तुम्हारे सत्य से या लंतरानी से नहीं मतलब ||
ये परिचित लोग हैं ,परिचय से आगे बढ नहीं सकते |
तुम्हारी क्या किसी  की भावना को पढ़ नहीं सकते ||
अगर इनको कहीं से लाभ कुछ होता दिखाई दे |
कोई वह काम जो इनको ,कोई लम्बी कमाई दे ||
तो रूककर आपसे रिश्ता गज़ब का जोड़ लेते हैं |
ज़रूरी काम भी ऐसे समय पर छोड़ देते हैं ||
मोहब्बत के भवन के द्वार सारे खोल देते हैं |
सलाहें जिंदगी की फिर तुम्हें अनमोल देते हैं ||
तुम्हारे साथ तो पिछले जनम से ही लगे हैं ये |
अगर हित सिद्ध होता है तो फिर सबसे सगे हैं ये ||
कभी भी दर्द अपना इनके आगे गुनगुनाना मत |
कभी भी आंसुओं का एक भी दीपक दिखाना मत ||
ज़रूरी हो बहुत किस्सा मगर इनको सुनाना मत |
लबों पर आ भी जाए बात कोई पर बताना मत ||
ये जो रिश्ता निभाते हैं ,उसे तुम भी निभा देना |
ये मिलकर मुस्कुराते हैं तो तुम भी मुस्कुरा देना ||
ये धारा बह रही जैसी उसे वैसी ही बहने दो |
ये परिचित लोग हैं प्यारे इन्हें परिचित ही रहने दो ||
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Saturday, 5 November 2011

सुनामी आ गयी

 
ह्रदय का सागर बहुत कांपा
और नैंनों तक सुनामी आ गई ||

स्वप्नके पंछी कहाँ जाएँ ,घोंसले तक आ गया पानी |
पेड़ की औकात ही क्या है ,पर्वतों को खा गया पानी ||
अब न जाने राम क्या होगा ,
प्रलय की बदली गगन में छा गई ||

मैं तुम्हारे झूठ को जीकर ,खुश बहुत था क्या किया तुमने |
आज दशकों बाद जाने क्यों ,एक सच बतला दिया तुमने ||
मैं तुम्हारा सिर्फ ग्राहक था ,
आपकी कातिल नज़र समझा गई ||

क्या बिगड़ जाता तुम्हारा ,जिन्दगी के चार दिन थे |
क्या न तुमसे कट रहे थे ,शेष पल इतने कठिन थे ||
मैं तुम्हारा एक मुहरा था ,
प्यार की गीतांजली पथरा गई ||
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Friday, 4 November 2011

मैना पाली है



खालीपन भरने को ये तरकीब निकाली है |
यार तुम्हारे नाम से घर में मैंना पाली है ||

रोज़ सुबह ही इससे होतीं लम्बी लम्बी बातें ,
उसे बताता हूँ कैसे काटी बिरहा की रातें ||
यह भी मेरी बातें सुनकर शीश हिलाती है |
आँखें घुमा घुमाकर जाने क्या समझाती है ||
यह मेरे सारे तालों की इकली ताली है |
यार तुम्हारे नाम से घर में मैना पाली है ||

उसे खिलाना और पिलाना अच्छा लगता है |
उसको अपने गीत सुनाना अच्छा लगता है ||
उसे देखता रहता हूँ वह इतना भाती है |
मैं गाता हूँ तो लगता है वह भी गाती है ||
कितनी सुन्दर है वह कितनी भोली भाली है |
यार तुम्हारे नाम से घर में मैना पाली है ||

मेरे सुख दुःख बाँट रही है बोल नहीं सकती |
मेरी कमियों का भी चिट्ठा खोल नहीं सकती ||
मेरी आँखों में सपनों के दीप जलाती है |
मैं उदास होता हूँ तो अनमन हो जाती है ||
इसने मेरे जीने की लालसा बचाली है |
यार तुम्हारे नाम से घर में मैना पाली है ||

पिंजरे में रहती है फिर भी गिला नहीं करती |
मुझसे कभी क्रोध में आकर मिला नहीं करती ||
मेरी प्यार भरी बातों से शर्मा जाती है |
मेरी साँसों की चिट्ठी तुम तक पंहुचाती है ||
थोड़ी शर्मीली है थोड़ी नखरों वाली है |
यार तुम्हारे नाम से घर में मैना पाली है ||

जब तक पिंजरा बंद तभी तक इससे नाता है |
यह रिश्तों का जाल हमें हर पल भरमाता है ||
जिस दिन इसकी प्रीति परिंदों से जुड़ जायेगी |
पिंजरा खुलते ही तुम जैसी यह उड़ जायेगी ||
यह सच्चाई दिल में अपने खूब बिठाली है |
यहाँ प्यार का मतलब संवेदन को गाली है ||
यार तुम्हारे नाम से घर में मैना पाली है ||

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कोई ऐसा बाज़ार नहीं

सब मांग रहे अपने अपने अहसानों का बदला मुझसे ,
मेरी कृतज्ञता का भी पारावार नहीं |
मैं कैसे चुकता करूँ भरूँ यह ऋण कैसे ,
अपनी साँसों पर भी मेरा अधिकार नहीं ||

माता ने जनम दिया और प्यार दुलार दिया,
अपनी ममता से करुना का संसार दिया |
पालन कर्ता का चढ़ा पित्र ऋण बाकी है ,
गुरुओं ने विद्या दी जीवन का सार दिया ||
मैं लाख जतन करके भी दे न सका खुशियाँ ,
मेरी श्रृद्धा के लिए कोई तैयार नहीं |\

भाई बहनों का ऋण भी नहीं किसी से कम ,
सम्बन्ध रुधिर के यह उनके ही कारण हैं |
मेरे अब तक के सारे किये गए उपक्रम ,
बेमतलब हैं नाकाफी हैं साधारण हैं ||
उनको लगता है उन्हें छोड़कर दुनिया में ,
मेरा कोई भी है अपना संसार नहीं ||

जो भी समाज में मान प्रतिष्ठा मिली मुझे ,
या किसी रूप में जो भी मुझ पर दौलत है |
पत्नी कहती है ,तेरी कुछ औकात नहीं ,
तेरा क्या है वह सब तो मेरी बदौलत है ||
सब कुछ उसका है तो फिर कर्ज चुकाने को ,
मैं कहाँ बिकूं  ऐसा कोई बाज़ार नहीं ||

बेटा  बेटी जिनके कारण मैं बाप बना,
उनके अहसानों का कुछ बदला दिया नहीं |
मैं जो करता हूँ वह तो है दायित्व मेरा ,
उनका कहना है मैंने कुछ भी किया नहीं ||
लगता है अगले कई जनम लग जायेंगे  ,
पर हो पाऊँगा मैं इनसे उद्धार नहीं ||

है इस समाज का भी हर पग पर क़र्ज़ चढ़ा ,
मित्रों का , दुनिया के सब रिश्तेदारों का |
टुकड़े टुकड़े बट गया मेरा सारा वजूद
आत्मा पर भी है बोझ बहुत उपकारों का||
मैं द्वार द्वार का देनदार हूँ दुनिया में ,
मेरा अपना कोई कोई स्वतंत्र किरदार नहीं ||

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