Friday, 18 October 2013

ग़ज़ल

रात  दिन  उसके  दर  पे  आने  जाने  से  मिलेगा  क्या ।
नहीं  मालूम  उसके  आस्ताने  से  मिलेगा  क्या ॥

ख़ुशी  की  चंद  घड़ियाँ  आंसुओं  से  धो  रहा  है  तू ,
तुझे  ज़ख्मों  भरे  गुज़रे ज़माने  से  मिलेगा  क्या ॥

कहा  पोते  ने  दादी  से  कभी  बाज़ार भी  जाओ।
मुझे जो दे रही हो  चार आने से मिलेगा क्या ॥

वो जो दिखता था खिड़की  पर  सगाई हो गई उसकी,
नहाकर छत पे अब गेसू सुखाने से मिलेगा क्या ॥

दिया मौक़ा तुम्हें जब भी बहुत धोखे मिले मुझको ,
तुम्हीं बोलो तुम्हें फिर आज़माने से मिलेगा क्या ॥

उन्हें खोजो जिन्हें इस मुल्क की परवाह हो साथी।
गरीबों को भला ऊँचे घराने से मिलेगा क्या ॥

तनिक सी चोट लगने पर तुम्हें जो छलछला आयीं।
उन आँखों को बुढ़ापे में रुलाने से मिलेगा क्या ॥

यहाँ बेचारगी है ,दर्द है ,आहें हैं ,आंसू हैं ,
तुम्हें इक वोट से ज्य़ादा खज़ाने से मिलेगा क्या ॥

ये ऐसे पेड़ जो परछाइयों को छीन लेते हैं '.
इन्हें अपने लिए छाता बनाने से मिलेगा क्या ॥

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