Friday, 26 December 2014

लव  का रोष
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सघन संताप में दहकर  हुईं  भूमिष्ठ वैदेही।
असह चिर वेदना सहकर हुईं भूमिष्ठ वैदेही।।
बिलख कर रह गए लव-कुश ,तड़प कर रह गए राघव।
नहीं अब तक सहा था ,आज वह भी सह गए राघव।।
खड़ी  व्याकुल सभी माएँ ,व्यथित परिजन हुए सारे।
अवध में मच गया कुहराम , आकुल जन हुए सारे।।
 सुतों को देख कर सम्मुख , विकल राघव बढे आगे।
पिता की देख विह्वलता कदम दो लव बढे आगे ।।
ह्रदय में फट रहे थे , रोष के आक्रोश के गोले।
ठिठक कर लव अवधपति से , तनिक आक्रोश में बोले।।
कहा लव ने अवध के राज राजेश्वर ठहर जाओ।
ओ दिनकर वंश के आलोकमय दिनकर ठहर जाओ।।
हमें इन प्रेम विह्वल बाहुओं में ले सकोगे तुम।
हमारे कुछ सवालों के , जो उत्तर दे सकोगे तुम।।
जाली है आज सच की अस्मिता जलते उजालों में।
अवधपति घिर गए हो आज बनवासी सवालों में।।
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं  कहना।
अगर भगवन हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना।।

अगर पति हो , पिता हो ,याकि राजा हो तो उत्तर दो।
तुम्हारी न्यायनिष्ठा का तकाज़ा हो तो उत्तर दो।।
सुना है आप जग में एक , मर्यादा की मूरत हो।
सुना है ज्ञान की और प्रेम की अविभाज्य सूरत हो।।
तुम्हारे वास्ते ही , सुखों का आकाश छोड़ा था।
लिया बनवास पतिव्रत धर्म पर रनिवास छोड़ा था।।
हज़ारों दुःख सहे पर आपको अविकल नहीं छोड़ा।
रहीं लंका में लेकिन प्रीती का सम्बल नहीं छोड़ा।।
परीक्षा अग्नि की ली आपने किसको दिखाने को।
बताना चाहते थे आप शायद इस ज़माने को।।
अपावन पात्र को अपने ह्रदय से वार नहीं सकते।
ये रघुवंशी किसी पर यूँ भरोसा कर नहीं सकते।।
परीक्षा वह भी माता ने चिता पर बैठ कर दी थी।
तुम्हारे प्रति समर्पण में बताओ क्या कमी की थी।।
कोई भी अंश कालिख का कहीं लगने न पाया था।
मेरी माता ने अपना धर्म हंस हंसकर निभाया था।।
हिमालय त्याग का लेकिन खड़ा था चाह के पीछे।
उन्हें छोड़ा गया राजन महज़ अफवाह के पीछे।।
ठगा विश्वास राघव बोलिए तो किस हताशा में।
सचाई को मिला बनवास किस यश की पिपाशा में।।
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना।
अगर भगवन हो तुम तो , हमें कुछ भी नहीं कहना।।

तुम्हारे वंश की विरुदावली  में ढल रहे थे हम।
तुम्हारे अंश थे माँ के उदर  में पल रहे थे हम।।
नहीं सोचा कि ऐसे में कहाँ जाएगी मेरी माँ।
भयानक जंगलों में कैसे रह पायेगी मेरी माँ।।
नहीं सोचा क़ि पीड़ा का कलश इक रोज फूटेगा।
मेरी माता के भी माता - पिता पर वज्र टूटेगा।।
सत्य का सिंह मृगछौना हुआ सम्राट के आगे।
तुम्हारा पति बहुत बौना हुआ सम्राट के आगे।।
सात जन्मों का बंधन तोड़ देना ही उचित समझा।
मेरी माँ  को अकेला छोड़ देना ही उचित समझा।।
नहीं हम जान पाये आज तक यह आप कैसे हैं
अभागा कर दिया बच्चों को अपने , बाप कैसे हैं
आपके प्यार के पंछी ने भी उड़कर नहीं देखा
हमारा हल क्या है आपने मुड़कर नहीं देखा
भुजाएं खोलकर आते हो सीने से लगाने को
हमें स्वीकार करने को हमें अपना बनाने को
हमारी माँ को ले डूबा ये कैसा प्यार है राजन ?
सुतों पर आपका अब कौन सा अधिकार है राजन ?
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवन हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना

हमें मालूम है विरहाग्नि में खुद भी दहे होंगे
तुम्हारे नेत्रों से अश्रु के झरने बहे होंगे
कभी भी चैन इक पल को नहीं , तुमको मिला होगा
ये आभायुक्त मुख मंडल न फूलों सा खिला होगा
गहनतम पीर के आंसू वो पश्चाताप के आंसू
मगर बेकार ही सारे गए हैं आप के आंसू
बड़े सम्राट पर हो अकिंचन दे नहीं सकते
पुनः हमको हमारा बीता बचपन दे नहीं सकते
हमें पाला है कुटियों ने , हमें पाला है जंगल ने
हमें पाला  है ऋषियों ने , बचाया माँ के आँचल ने
बहुत मजबूर होंगे आप ,हम मजबूर कैसे हों
हम अपने पालने वालों से राजन दूर कैसे हों ?
नहीं माता रहीं तो सर पे ऋषि का हाथ बाकी है
हमारे साथ में बनवासियों का साथ बाकी है
हमारी दाढ़ियाँ माँ के विरह को सह न पाती थीं
मगर सम्राट के आगे विवश  थीं , कह न पातीं थीं
मेरे पितृव्य तीनो ,आपकी आज्ञा से हारे थे
एक सम्राट के आगे सभी अनुचर बिचारे थे
कुलगुरु और सचिव सब आपकी निष्ठां में पलते  हैं
सभी धर्माधिकारी आपके अनुसार चलते हैं
ये कैसा युद्ध जिसमें एक भी मस्तक नहीं फूटा
यहां दरबार में आक्रोश का स्वर तक नहीं फूटा
जिया जो माँ  ने वह संतोष ,सीने में लिए हैं हम
यहां का पददलित आक्रोश सीने में लिए हैं हम
हमारे वक्ष में तूफ़ान है कैसे निकालोगे
अवध के नाथ इस आक्रोश को कैसे सम्हालोगे ?
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना

यज्ञ हयमेघ जो संकल्प कर तुमने रचाया है
यहां आसन पे माँ  की स्वर्णप्रतिमा को बिठाया है
तुम्हारे ज्ञान ने ही फिर तुम्हें सिखला दिया होगा
वो सोने के हिरन का आपने बदला दिया होगा
वहां अन्याय है यदि न्याय में होती बहुत देरी
लो देखो यज्ञ की पूर्णाहुती में माँ गयी मेरी
पिता हैं राम मेरे मेरी माता ने बताया था
हमारे मन में भी बहुधा ये सुन्दर स्वप्न आया था
पिता से प्यार करना ,और पिता की गोद  में रहना
पिता से तोतली भाषा में अपने चित्त की कहना
मगर इन जागते सपनों का बोझा सह नहीं पाया
इन आँखों में कोई सपना , बहुत दिन रह नहीं पाया
हैं अपने दर्द में बहते उसी धारा में बहने दो
अब इन बनवासियों पर राजवंशी प्यार रहने दो
हमारी माँ  ने दुःख झेले मगर कुछ कह नहीं पाया
भार इतनी परीक्षाओं का लेकिन सह नहीं पाया
यहां फिर से परीक्षा अग्नि वाली दी नहीं माँ  ने
जो गलती कर चुकीं थीं और गलती की नहीं माँ ने
चढ़े निशि दिन कसौटी पर जहां सम्मान नारी का
तनिक अफवाह पर होता जहां अपमान नारी का
वहां यदि माँ हमारी , रंगमहलों में चली जाती
अगर अपने पती के संग महलों में चली जाती
तो नारी जाति के मस्तक पे कालिख लग गयी होती
खुली फाँसी  पे नारी अस्मिता ही टंग गयी होती
किया उत्सर्ग खुद का , मान नारी का बढ़ाया है
तिलक नारीत्व के मस्तक पे माता ने लगाया है
धारा में पैठ कर माँ ने बचाया मान नारी का
पुरुष के सामने रक्खा सहज सम्मान नारी का
असह पीड़ा ह्रदय में , किन्तु यह मस्तक तना तो है
मेरा जीवन उसी माता के जीवन से बना तो है
नहीं जो कर सका कोई , किया है अम्ब सीता ने
ये उत्तर सारी दुनिया को दिया है अम्ब सीता ने
कि नारी पुरुष को जनती तो है पर जानती भी है
उसे अपना सभी कुछ हाँ सभी कुछ मानती भी है
मगर स्त्रीत्व पर जब भी कुठाराघात होता है
कुलिश पल भर में तो कोमल सरल जलजात होता है
सजा दी आपने माँ  को सजा वह सह गयी  राजन
पतिव्रत धर्म वाले पींजरे में रह गयी राजन
दिया दंड माँ  ने वह तुम्हें प्रतिपल रुलायेगा
तुम्हें शिव का धनुष टूटा हुआ हर पल सताएगा
हुआ है और न होगा ,ऐसा पति श्रीराम से पहले
सिया का नाम आएगा तुम्हारे नाम से पहले
बताओ किस तरह हम माँ  का आँचल छोड़ दें राघव
जहां बचपन गुजारा है वो जंगल छोड़ दें राघव
हमारे शब्द घायल हैं ,दहकती पीर जैसे हैं
क्षमा करना हमारे प्रश्न तीखे तीर जैसे हैं
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
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Wednesday, 16 April 2014



शपथ पत्र

कविता मेरे लिए सब कुछ है ! आज तक जो भी पाया कविता से पाया ,जो भी खोया उसके पीछे भी कविता का ही हाथ था !एक धनहीन परिवार से अपनी पहचान कविता के सहारे बनाने निकला था !पैसा तो नहीं मिला देश - विदेश में पहचान जरूर बन गयी ! अभावों और संघर्षों से लड़ने की ताक़त कविता ने ही दी ! निराशा और अवसाद के गहन क्षणों में कविता नर टूटने नहीं दिया !मैं जीवन की अंतिम श्वांस तक कविता का ऋणी रहूँगा !
इसी कृतग्यता की अभिव्यक्ति स्वरूप डॉ उर्मिलेश और कैलाश गौतम की मंत्रणा से वर्ष -२००५ में मैनें अखिल भारतीय मंचीय कवि पीठ की लखनऊ में स्थापना की !हिन्दी कविता की वाचिक परम्परा को स्थापित करने के प्रयोजन से कई राष्ट्रीय - अंतर राष्ट्रीय आयोजन किये ! देश विदेश से आमंत्रित कवियों , हिन्दी सेवकों का सम्मान किया ! हर समारोह में उपलब्धि नामक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन भी कर रहा हूँ !
   निष्कर्ष यह की कविता मेरे लिए श्रद्धा है ,पूजा है और जिन्दगी भी ! हज़ारों कविसम्मेलनों में काव्य पाठ  संयोजन और संचालन किया और कर रहा हूँ !इन बड़े समारोहों के कारण नई पीढ़ी के रचनाकार मुझे कवि  के स्थान पर केवल संयोजक समझने लगे !मेरे लिए एक विचित्र स्थिति बन गई ! मैं सदैव छंद बद्ध कविता का हामी रहा हूँ !लम्बी कवितायें ,गीत ,छंद ,मुक्तक ,दोहे सभी कुछ खूब लिखा !तमाम पात्र - पत्रिकाओं में छपा भी !किन्तु मेरी एक कमी है जिसे मैं स्वीकार करता हूँ ,प्रकाशन के लिए रचनाएं भेजने में आलसी रहा हूँ !
    कविता ह्रदय की वास्तु है केवल मष्तिष्क की नहीं !छंद में सभी कुछ कहा जा सकता है ! इधर कविता में तमाम तरह के आंदोलन चले !नई कविता के अलंबरदारों ने छंद मुक्त कविता को ही कविता मान सम्पूर्ण  छांदिक परम्परा को ही खारिज कर दिया !यह एक भयावह स्थिति थी !नई कविता के नाम पर अपठनीय और उलझाऊ गद्य का सृजन कियाजाने लगा !मानता हूँ कविता का का यह पश्चिमी संस्करण कविता भी हो सकता है ,यदि उसमें तरलता ,संवेदनशीलता और सहज बोधगम्यता हो !
    कबूतर अब नहीं रोता मुक्त छंद कविताओं का यह संग्रह आपको सौंपते हुए मेरा निवेदन है कि आप इसकी भाव गंगा की गहराई तक अवश्य उतरेंगे !
     कुछ कविताओं को छोड़ दें तो संग्रह की शेष सभी कवितायें स्वानुभूत प्रेम की अभिव्यक्ति हैं !संभव है कि यह निजी पीड़ा और आनंद की  अनुभूतियाँ आपको अपनी लगें !मैंने अपना काम कर दिया है अब बाक़ी काम आपका है !अभी आपसे बहुत कुछ कहना है !अगली पुस्तकों में यह संवाद चलेगा !
    मेरी अर्धांगिनी पुष्पा जो स्वयं एक अच्छी कवयित्री हैं ,वे इस संग्रह के मूल में हैं !मेरे बच्चे - राजेश , दिव्या , काव्या सभी का योगदान किसी न किसी रूप में इस संग्रह की कवितायें लिखने से लेकर छपने तक रहा है!
        सुप्रसिद्ध उपन्यासकार मेरे अग्रज श्रद्धेय सुधीर निगम [कानपुर ] का प्रोत्साहन प्रियवर पवन बाथम और वनज कुमार 'वनज ''[जयपुर ]की आत्मीयता और सहयोग ने इसे पुस्तक का आकार देने में महत्व पूर्ण भूमिका अदा की है !
       अंत में पूरी आश्वस्ति के साथ आपकी स्वीकारोक्ति के निमित्त "कबूतर अब नहीं रोता " कविता संग्रह आपको हस्तगत कराता हुआ आपसे त्रुटियों की क्षमा के साथ अतिरिक्त स्नेह की कामना करता हूँ !

                                                                                                         डॉ नरेश कात्यायन
                                                                                                            लखनऊ 


आतंक 

महकती बारूद /टूटते तारे 
गगन की कंदराओं से सभाओं में 
बिखर जाता रोशनी का रक्त 
जर्जर हो गया है आदमी 
मौत के पहरे जडे  हैं टाइलों से
मिट्टी में सना आतंक 
कोठियां / घर झांकते दिखते 
झरोखों / खिड़कियों से 
धूप मानों राइफल की नाल 
सुबह का अखबार 
हमने रात भर की ज़िंदगी जी ली !


खेत / दफ्तर / मिल / दुकानें ,दिन 
शाम फिर होगी न होगी 
सीरियल या फिल्म /टीवी घर रहेगा 
खेत का श्मशान /भीड़ नगरों की 
कहाँ मुंह फाड़ दे बन्दूक 
रेंगता चौबीस घंटे वक्ष पर 
हड्डियों का एक पंजा 
और हम 
बात करते ,गुनगुनाते ,फाइलें पढ़ते 
मशीनें या हल चलाते 
दब गया स्कूल जाता छात्र 
ट्रक के सामने आकर 
बर्बर हो गया है आदमी !


पारदर्शी बंद कमरा 
देखते हम 
कोई गोली खिड़कियों का कांच तोड़े 
मेज के नीचे दुबककर 
फर्श पर गिरकर 
फिर सुरक्षित इसी कुर्सी पर जड़े  होंगे
एक गोली की त्वरा का भ्रम 
ज़िदगी का दे रहा अहसास 
हम जीते रहेेगे !


राजपथ ठीक बीचों बीच 
अचानक आ खड़ी है कार 
खिड़कियों से झांकता नीला अन्धेरा 
सामने का कांच भी काला 
राम जाने किस तरफ की 
झक्क से खिड़की खुलेगी !


अभी तक लौटा नहीं बेबी 
बज गए हैं पांच 
सिर्फ साढ़े चार तक स्कूल 
दस मिनट का रास्ता 
कहाँ रिक्शा फंस गया 
घनघनाकर  बज उठा है फोन 
बढ़ गयी धड़कन 
रिसीवर हाथ में है
गेट पर घंटी बजी रिक्शा रुका  
दौड़कर आता हुआ बेबी 
बच गया फिर एक भीषण  हादसा !


फिर गयी बत्ती शहर की 
ट्रांसफार्मर जल गया या तार काटे हैं किसी ने 
जल न पाई मोमबत्ती 
कांपते हैं हाथ 
घड़ी की टिक - टिक 
तोड़ती निर्जीव सन्नाटा 
बढ़ रहीं हैं धड़कनें /साँसें 
जाने किस तरफ हो धाँय 
बंद आँखे देखतीं यमदूत 
कंठ में फंसने लगा हनुमान चालीसा 
झलझलाकर आ गई लाइट 
राइफल ताने पलंग के पास
कोई था यहां पर 
अब कहाँ है ?
बंद करके स्वीच हम सोये 
आजकल हम भी भुलक्कड़ हो गए हैं ! 


हम सब संस्कारी हैं

खान लड़ता है आदमी ?
लड़तीं हैं कुटिल मानसिकताएं
खून और बारूद से जिनके नाम के विज्ञापन
लिखे होते हैं दुश्मनों की छाती पर
कहाँ लड़ते हैं देश ?
राज भवनों पर लगे ध्वज
केवल फहरते हैं लड़ते नहीं
तोपें /मशीन गनें /बंदूकें
जंग भले लग जाय
लोहा मिट्टी बनता है तो बन जाय
कभी लड़े हैं आज तक ?
लड़ती हैं आवाज़ें
कठपुतलियों की तरह नाचती हुई
सिपाही भी कहाँ लड़ते हैं ?
उनके जेहन में घुस जाती हैं ये आवाज़ें
अपने - अपने सिंहांसन  की छतरी थामें
लिप्साओं के हवन कुण्ड में
आहुतियां देती हैं ये आवाज़ें
ॐ युद्धाय नमः !
ॐ महाकालाय नमः !
ॐ विनाशाय नमः !
साकिल्य बनते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी मनुष्य
हरी - भरी धरती
निर्मल नदियां /झरने /पहाड़
सुख और शान्ति जैसे द्रव्य
मान्सिक्ताएं भी लड़ती कहाँ ?
हवन करती हैं
हवन करना पावन संस्कार है
सनातन संस्कृति का
हम सब संस्कारी हैं !


बेरोजगार यमदूत 

घायल यमदूत को उठा ले गए 
साथी यमदूत
 भीड़ भरी सड़कों पर 
कार की चपेट में आ गया 
नहीं मालूम थे यातायात के कायदे 
मालूम भी होते तो कौन मानता 
जिसकी तलाश में यमपुरी से आये थे 
शहर के किसी मोहल्ले /गली /फ्लैट में 
नहीं मिला वह 
गिनती भी तो नहीं जानते यमदूत 
सेक्टर /फेज /गली/ हाउस नंबर 
कैसे पढ़ पाते 
सड़क पर भटकते तो कहाँ तक 
बुलेटप्रूफ कारों में घुस नहीं पाये 
केवल तस्वीर लेकर तलाशते रहे 
इसी भागमभाग में एक यमदूत 
आ ही गया कार की चपेट में 
यमराज माथा ठोंकते रह गए 
उनके डिपार्टमेंट की ज़िम्मेदारी 
निभाने लगे बुलेटप्रूफ कारों वाले 
बेरोजगार होने लगी यमपुरी 
स्वर्ग की रियासत जस की तस 
पता नहीं स्वर्ग के काम काज 
अपने हाथ में लेगा भी आदमी ?  



अब कहीं ख़तरा नहीं है

बुद्ध ने भी पा लिया निर्वाण 
पीचुका विष शान्ति का सुकरात 
क्रास पर लटक चुका ईशा 
गोलियां खा चुका गांधी/ सत्य की पैरवी में 
शून्य में खोया विवेकानंद 
जल समाधि ले चुके राम 
बहेलिये के तीर की भेंट चढ़ गए कृष्ण 
महावीर के पांचो तत्व 
विलय हो गये अपने - अपने कोष में 
यह सभी बहुत डराते थे तुम्हें 
उसके डर से जिसे किसी ने नहीं देखा 
नाकामयाब हो गए इनके उपदेश 
तुहारे ज़ेहन में कौंधती 
हिंसा की तकरीरें जीत गईं !
अपने आका काली कमली ओढ़ कर सो गए 
नानक ,दादू और कबीर मौन हो गए 
निर्जीव नाम बचे हैं केवल 
तुम्हारी मानसिकता का पहरेदार 
कोई नहीं बचा 
अब किसका और कैसा भय ?
गीता / रामायण / क़ुरआन /बाइबिल और गुरुग्रन्थ 
मखमली वस्त्रों में आवृत 
बन गए हैं रहल की शोभा 
यह किसी को कैसे डरा सकते हैं 
तुम्हारा अशेष अहंकार बुलंदियां पा गया !
तुमने अपनी हथेलियों पर 
उगा लिए कंटीले बबूल 
इतने बढ़ा लिए नाखून 
पलकों पर लगा ली नंग्फनी की बाड़ 
तुम अपना मुँह भी नहीं धो सकते 
नींद नागफ़नियों में उलझ गई 
पांवों में बारूद की चट्टाने बांधकर 
किस उत्कर्ष की और चलोगे ?
तुम्हारे होंठों पर लगा है तुम्हारा ही लहू 
भीतर भूख से छटपटाता भेड़िया 
इंसानी गोश्त की भूख 
यह तुम्हीं हो अकेले मेरे भाई 
दूसरा कोई नहीं 
बच सकते हो तो बचो 
अपनी हथेलियों /नाखूनों /पलकों और 
अपने भीतर भूख से छटपटाते 
खूँख्वार भेड़िये से 
पावों में बंधी चट्टानों से 
वरना बाहर कहीं ख़तरा नहीं है !

Tuesday, 15 April 2014

आग खुद लगी है

प्रेम का हिरन
दौड़े तो कौन करे मुकाबला
बल्लियों उछल जाए
सागर के ज्वार की तरह
तनिक आहट पर भी चौंकता
इतरा-इतरा कर भागे
सारे वन को बपौती मान
यह कस्तूरी मृग नहीं है फिर भी
बैठने नहीं देती कस्तूरी की महक
अन्धा भी है यह
सितार की धुन में मस्त
वीणा के तारों में बिंधा
बांसुरी की पुकार से सम्मोहित
भूल जाता है देखना ,सुनना ,सोचना
बाघ हमला करे या भेड़िया
 वैराग की खिल्ली उड़ाती प्रेम की साधना
हतभाग्य प्रीति का सारंग
एक -एक रंग को मादकता में घोल
पोर - पोर आशक्ति में डूबा
भूल जाता है कि यहीं कहीं पर
सधी हुई स्वर लहरी वाले
सधी हुयी दृष्टि और सधे  हुए लक्ष्य वाले
शिकारी के सधे हुए हाथों के तीखे तीरों से
एक निष्क्रिय युद्ध चेतना में
मोहनिद्रा के वशीभूत
करता है मृत्यु का वरण
मर जाता है जब प्रेम का हिरन
तब उठता है जंगल में तूफ़ान
हिंसक शोर
असंतुष्ट कोलाहल
आग की ऊंची - ऊंची लपटें
हिरन के शोक में अग्नि समाधि लेता वन
हर तरफ फैलती एक सूचना
यह आग खुद लगी है !