Wednesday, 16 April 2014



आतंक 

महकती बारूद /टूटते तारे 
गगन की कंदराओं से सभाओं में 
बिखर जाता रोशनी का रक्त 
जर्जर हो गया है आदमी 
मौत के पहरे जडे  हैं टाइलों से
मिट्टी में सना आतंक 
कोठियां / घर झांकते दिखते 
झरोखों / खिड़कियों से 
धूप मानों राइफल की नाल 
सुबह का अखबार 
हमने रात भर की ज़िंदगी जी ली !


खेत / दफ्तर / मिल / दुकानें ,दिन 
शाम फिर होगी न होगी 
सीरियल या फिल्म /टीवी घर रहेगा 
खेत का श्मशान /भीड़ नगरों की 
कहाँ मुंह फाड़ दे बन्दूक 
रेंगता चौबीस घंटे वक्ष पर 
हड्डियों का एक पंजा 
और हम 
बात करते ,गुनगुनाते ,फाइलें पढ़ते 
मशीनें या हल चलाते 
दब गया स्कूल जाता छात्र 
ट्रक के सामने आकर 
बर्बर हो गया है आदमी !


पारदर्शी बंद कमरा 
देखते हम 
कोई गोली खिड़कियों का कांच तोड़े 
मेज के नीचे दुबककर 
फर्श पर गिरकर 
फिर सुरक्षित इसी कुर्सी पर जड़े  होंगे
एक गोली की त्वरा का भ्रम 
ज़िदगी का दे रहा अहसास 
हम जीते रहेेगे !


राजपथ ठीक बीचों बीच 
अचानक आ खड़ी है कार 
खिड़कियों से झांकता नीला अन्धेरा 
सामने का कांच भी काला 
राम जाने किस तरफ की 
झक्क से खिड़की खुलेगी !


अभी तक लौटा नहीं बेबी 
बज गए हैं पांच 
सिर्फ साढ़े चार तक स्कूल 
दस मिनट का रास्ता 
कहाँ रिक्शा फंस गया 
घनघनाकर  बज उठा है फोन 
बढ़ गयी धड़कन 
रिसीवर हाथ में है
गेट पर घंटी बजी रिक्शा रुका  
दौड़कर आता हुआ बेबी 
बच गया फिर एक भीषण  हादसा !


फिर गयी बत्ती शहर की 
ट्रांसफार्मर जल गया या तार काटे हैं किसी ने 
जल न पाई मोमबत्ती 
कांपते हैं हाथ 
घड़ी की टिक - टिक 
तोड़ती निर्जीव सन्नाटा 
बढ़ रहीं हैं धड़कनें /साँसें 
जाने किस तरफ हो धाँय 
बंद आँखे देखतीं यमदूत 
कंठ में फंसने लगा हनुमान चालीसा 
झलझलाकर आ गई लाइट 
राइफल ताने पलंग के पास
कोई था यहां पर 
अब कहाँ है ?
बंद करके स्वीच हम सोये 
आजकल हम भी भुलक्कड़ हो गए हैं ! 

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