रूपसि
प्रेयसि ! तुम्हें क्यों लग रहा
कि तुम सुन्दर नहीं हो
तुम्हारी स्थूल काया
तुम्हारा सांवला रंग
तुम्हारी चाहतों के मार्ग में बाधा
बैरी हैं तुम्हारे स्वप्न के
तुम्हे शायद नहीं मालूम
दर्पण हो गई हो
प्यार की अभिनव परीक्षा ले रहा
एक भी तो रूप का लोभी
प्रेम का छलिया रसिक अलि
पास तक आया नहीं अब तक तुम्हारे
स्वार्थ की परतें चढ़ाये
वासना का क्षणिक पाठक
और यदि आ भी गया तो
जान लोगी एक क्षण में
करेगा जो प्यार तुमको
वह ह्रदय से ही करेगा
क्योंकि तुममे वह सभी कुछ है
जो नहीं होता सभी में
तुम्हें क्यों लग रहा रूपसि
कि तुम सुन्दर नहीं हो !
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