Saturday, 5 April 2014

रेगिस्तान  का भाग्य

नदी कितने तेज बहाव में थी
किनारे के पेड़ रेट के टीले जहां तहां बसे घर
समेत लिया उफनाती धारा में
मौसमों का अंदाज़ा गलत निकला
वर्षा ने कोहराम नहीं मचाया
बरफ के गोले भी नहीं गिरे
पत्थरों के सीने से विस्फोट कर निकली थी नदी
प्यास की शताब्दियां लिए
स्वागत में बाँहें पसारे बिछा था मरुथल
कहने के लिए उसके पास अपना समंदर
अपना विस्तृत जल साम्राज्य हो सकता था
हरहराती हुयी नदी
सागर के आवाहन का तिरस्कार कर
बिछ गयी रेगिस्तान के सीने पर
धारा की गति मंद हुई
 फिर न जाने किसकी पुकार पर
रेगिस्तान में
खुद के विलय से इनकार करती
वापस पहाड़ में समा गयी
कभी नहीं हुआ था ऐसा
किसी ने नहीं देखा था
ऐसी कोई सम्भावना भी नहीं थी
हत भाग्य रेगिस्तान
उलटे हर्फों में लिखी है विधाता ने
तेरी क़िस्मत !

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