Saturday, 5 April 2014


कैलेण्डर का किसान

यह बरसात का मौसम है
चारों और पानी ही पानी
अब जेठ की तपती  दोपहरी
सांय - सांय करती हवाएं
रेतीली  आंधियां /चटखती धरती
तड़ - तड़ टूट रहे ओले
खेतों को रौंदती कोहरे की फ़ौज
टूट पड़ी सिवान पर
बाढ़ का महा प्रलय
पानी में डूब गए खेत
पाले में झुलस गयी अरहर
लू से राख हो गयीं फसलें
धीरे - धीरे गुज़र रहा था यह सब
खेती किसानी पर
मेरे कक्ष में टंगा कैलेण्डर
कैलेण्डर में कंधे पर हल रखे
बैलों की जोड़ी के पीछे
मुस्कुराता किसान
अब भी मुस्कुरा रहा है
दीवार से रगड़ - रगड़ कर
चिंदी - चिंदी नहीं हो जाता कैलेण्डर
अथवा हवा के किसी तेज झोंके से फट नहीं जाता
मुस्कुराता ही रहेगा यह किसान
कोई मौसम /आंधी तूफ़ान
जलाती लू /ओलों की बारिस
इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते !

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