Tuesday, 1 April 2014

बेचारा दरख़्त

लग -भग ठूंठ हो चुका दरख़्त
रेगिस्तान के सीने पर
न कभी हवा न पानी
जीने के संकल्प के सहारे
किसी तरह बड़ा हुआ
कभी - कभी लू के थपेड़े ढेर सारी रेत
उड़ेल देते उसकी काया पर
लेकिन एक दिन अचानक
ठंढी आंधी का एक तूफ़ान
कई नदियों भर पानी समेटे आ गया उधर
ऐसी शीतल हवा ,इतना अधिक पानी
पहले नहीं देखा था कभी उसने
कितनी कोंपलें निकल आयीं एक दिन में ही
झूम - झूम उठा
हरियाली की उमंग जाग उठी  सूखे तने में
धमनियों में बहने लगा जीवन !
फिर देखते ही देखते
ठहर गयी आंधी
थम गया तूफ़ान
रुक गयीं पानी की बौछारें
बहुत कुछ मिला दरख्त को
फिर भी उदास है वह
हरा भरा रखने के लिए पानी
तरोताज़ा रखने के लिए हवा
उपलब्ध है उसे
कम नहीं होती उदासी दरख्त की
शायद अभ्यस्त हो चुका है वह
नदियों पानी समेटे ठंढी आंधी के उस तूफ़ान का
जो उसे ज़िंदा रहने की क़सम देकर ऐसा गया
फिर कभी नहीं लौटा !

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