Tuesday, 15 April 2014

आग खुद लगी है

प्रेम का हिरन
दौड़े तो कौन करे मुकाबला
बल्लियों उछल जाए
सागर के ज्वार की तरह
तनिक आहट पर भी चौंकता
इतरा-इतरा कर भागे
सारे वन को बपौती मान
यह कस्तूरी मृग नहीं है फिर भी
बैठने नहीं देती कस्तूरी की महक
अन्धा भी है यह
सितार की धुन में मस्त
वीणा के तारों में बिंधा
बांसुरी की पुकार से सम्मोहित
भूल जाता है देखना ,सुनना ,सोचना
बाघ हमला करे या भेड़िया
 वैराग की खिल्ली उड़ाती प्रेम की साधना
हतभाग्य प्रीति का सारंग
एक -एक रंग को मादकता में घोल
पोर - पोर आशक्ति में डूबा
भूल जाता है कि यहीं कहीं पर
सधी हुई स्वर लहरी वाले
सधी हुयी दृष्टि और सधे  हुए लक्ष्य वाले
शिकारी के सधे हुए हाथों के तीखे तीरों से
एक निष्क्रिय युद्ध चेतना में
मोहनिद्रा के वशीभूत
करता है मृत्यु का वरण
मर जाता है जब प्रेम का हिरन
तब उठता है जंगल में तूफ़ान
हिंसक शोर
असंतुष्ट कोलाहल
आग की ऊंची - ऊंची लपटें
हिरन के शोक में अग्नि समाधि लेता वन
हर तरफ फैलती एक सूचना
यह आग खुद लगी है !  

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