Wednesday, 16 April 2014



अब कहीं ख़तरा नहीं है

बुद्ध ने भी पा लिया निर्वाण 
पीचुका विष शान्ति का सुकरात 
क्रास पर लटक चुका ईशा 
गोलियां खा चुका गांधी/ सत्य की पैरवी में 
शून्य में खोया विवेकानंद 
जल समाधि ले चुके राम 
बहेलिये के तीर की भेंट चढ़ गए कृष्ण 
महावीर के पांचो तत्व 
विलय हो गये अपने - अपने कोष में 
यह सभी बहुत डराते थे तुम्हें 
उसके डर से जिसे किसी ने नहीं देखा 
नाकामयाब हो गए इनके उपदेश 
तुहारे ज़ेहन में कौंधती 
हिंसा की तकरीरें जीत गईं !
अपने आका काली कमली ओढ़ कर सो गए 
नानक ,दादू और कबीर मौन हो गए 
निर्जीव नाम बचे हैं केवल 
तुम्हारी मानसिकता का पहरेदार 
कोई नहीं बचा 
अब किसका और कैसा भय ?
गीता / रामायण / क़ुरआन /बाइबिल और गुरुग्रन्थ 
मखमली वस्त्रों में आवृत 
बन गए हैं रहल की शोभा 
यह किसी को कैसे डरा सकते हैं 
तुम्हारा अशेष अहंकार बुलंदियां पा गया !
तुमने अपनी हथेलियों पर 
उगा लिए कंटीले बबूल 
इतने बढ़ा लिए नाखून 
पलकों पर लगा ली नंग्फनी की बाड़ 
तुम अपना मुँह भी नहीं धो सकते 
नींद नागफ़नियों में उलझ गई 
पांवों में बारूद की चट्टाने बांधकर 
किस उत्कर्ष की और चलोगे ?
तुम्हारे होंठों पर लगा है तुम्हारा ही लहू 
भीतर भूख से छटपटाता भेड़िया 
इंसानी गोश्त की भूख 
यह तुम्हीं हो अकेले मेरे भाई 
दूसरा कोई नहीं 
बच सकते हो तो बचो 
अपनी हथेलियों /नाखूनों /पलकों और 
अपने भीतर भूख से छटपटाते 
खूँख्वार भेड़िये से 
पावों में बंधी चट्टानों से 
वरना बाहर कहीं ख़तरा नहीं है !

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