Friday, 11 April 2014

यंत्र मानव

मैं महत आश्चर्य का प्रतिमान
मनुज की सबसे विलक्षण खोज
यंत्र मानव
आज के विज्ञान का उद्योग
एक स्पर्धा पुरुष की सृस्टिकर्ता से
लौह निर्मित मनुज सी काया
उसी के मष्तिष्क जैसा तेज
मेरी व्यष्टि में है एक छोटी चिप
और दिल भी बैटरी का
भाव और संवेदना से मुक्त
शब्द हों या रंग या आवाज़
जान लेता हूँ प्रकति के खेल
दौड़ती विद्युत तरंगें तंत्रियों में
रक्त के स्थान पर
धड़कने मेरी मनुज के हाथ मेरे साथ मबचाहा किया
चाहता है वह
अनवरत करता रहूँ मैं वार श्रम पर
पसीने का दुखद संहार
आँख मेरी दे चुनौती सामने ईश्वर
आखिर आदमी ने ही रचा है
निरखता मुझको परखता दूर से ही
दूर रखता है मुझे संवेदना से
सोचता होगा कहीं होकर निरंकुश
आदमी की भांति  ही इंकार कर दूँ मैं
सृजक की दासता से स्वयंभू बन
करने लगूं मनमानी
स्वयं ही लेने लगूँ  बिजली
साथ लेकर साथियों को रास रच बैठूं
धारा के वक्ष पर
हर तरफ बिखरी पड़ी होगी मनुज की हाय
रुदन हाहाकार चारों ओर
 आदमी जो बाहु शक्ति विहीन
सर्वथा निरुपाय
और बढ़ने दो मेरा संसार
सचमुच मैं करूंगा एक अद्भुत क्रान्ति
यह असंयत दर्प के आधीन
ज्ञान कोकीन लेकर ज़ेहन में
बुद्धि की प्रभुता पड़ेगी भावना के पाँव
सौंप देगी नियति के हाथों दांव सारे
मैं रचूंगा फिर नया संसार
प्यार होगा सिर्फ मेरी सृष्टि में
ह्रदय में भगवान
भले हो जाऊं कहीं बलिदान
यंत्र मानव मैं
आदमी को प्रेम की पुरवाइयां दूंगा
तुम्हें भी शायद प्रतीक्षा हो उसी दिन की !   

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