Friday, 11 April 2014


भूल

मीत  मेरी या तुम्हारी
या किसी अज्ञात अवसर की हुई है भूल
नाव से मस्तूल कैसे कट गया
प्रीति  का पीयूष अंतर में भरे बादल प्रवासी
एक तडिता  हो गई चंचल
सहज ही देखकर उसको
हलचलों में खो गया बादल
वक्ष पर था चंचला का नृत्य
और बादल प्रीति का घट था संभाले
दानियों की कोटि से नीचे गिरा
आहत श्याम घन
ज्योति की पग थाप में तल्लीन
हो गया वह आग के आधीन
छोड़कर मूर्छित उसे
 हो गई तडिता अचानक लुप्त
मर्म पर थे घाव गहरे
फूल सौरभ पंखुरी के साथ बिखरा
जगत के निस्सीम नभ में
इस तरह छितरा चुका था
समय के ठहराव से ऐसे जमी
शान्ति के मेधापटल पर वासना की धूल
कट गया मस्तूल मीत बोलो
चंचला की जलद की या या उन पलों की भूल
बहुत मुमकिन है कहानी
तुम्हारी और हमारी ज़िंदगी कर अदृश पृष्ठों पर
विधाता ने गढ़ी है
खुली आँखों का भयावह स्वप्न
मैं पुरुष था और बादल भी
तुम्हें पथ में हमारे चंचला का रूप धरकर
निठुर यूँ आना नहीं था
आत्महंता प्रणय का खिलवाड़
छोड़कर उन्माद क्या
गंभीर हो जाना नहीं था
दोष केवल है तुम्हारा क्योंकि मैं नर हूँ
नारों की यह नियति है
भूल तो है भूल आदत है मनुज की
भूल की स्मृति रही दुहरा तुम्हें
सघन कुहरे सी अयाचित
किस तरह भूलूँ हुई जो भूल !


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