Tuesday, 15 April 2014

वह क्षण


वह क्रमिक सौंदर्य का उत्सर्ग
आ गया जब स्वर्ग धरती पर
प्रथम तो झुकते हुए दो नैन देखते यूँ कनखियों से
लाज ज्यों उन्माद के भुजपाश में हो
चाहती हो मुक्ति पर उन्माद का कहना न टाले
एक गहरी मदिर सी मुस्कान अधरों पर
कि जैसे बस गयी हो तुम
मेरी उद्यान वाली झोपड़ी में सहम करके
इस तरह देखा तुम्हें मैंने
कि जैसे हथकड़ी पहने कोई तैराक देखे
बाढ़ वाली सिंधु सी विस्तृत नदी को
हो गया क्षण एक में पक्षी हमारा मन
उड़े फिर - फिर तुम्हें छूता चहकता निस्सीम नभ में
ज्यों उड़े पछुआ हवा के गर्म झोंकों में
सितारों से जड़ी फर -फर तुम्हारी चूनरी
बन गयीं सौंदर्य का प्रतिमान तुम !
कामना का कोई शिल्पी
वासना की छेनियों से
कर रहा हो कल्पना अनुरूप
मन के चक्षुओं में
एक पत्थर को सुघर प्रतिमा बनाने की क्रिया
छत रही वह मूर्ति उतना बढ़ रहा सौंदर्य
वह क्षणिक निर्माण भी कितना बड़ा था
एक पल पीछे
तुहारी सहज आकृति
स्वर्ग के सौंदर्य से सुन्दर हुई !
और जब तुमने उठाये नैन
कुछ नशीले कुछ लजीले कुछ गुलाबी
अप्रकाशित वह अनूठा काव्य
जिसका प्रथम पाठक
छंद से नव छंद फिर अध्याय से अध्याय
पढ़ रहा अनुक्षण स्वयं में खो रहा था !
प्रिय तुम्हारे कर्णफूलों से
धरा पर हैं चमकते स्वप्न कुछ
वक्ष पर स्कंध से उतरे हुए कछ केश
उनकी भांति ही अस्थिर हमारी दृष्टि !
सोचता हूँ तुम अगर बिंदी लगातीं
बहुत अंन्याय होता
क्योंकि उस स्थान का स्पर्श
दो कोमल गुलाबी पंखुरी करतीं चहककर
और खुद निर्माण हो जाता
लजीली बिंदियों का !
यह कपोलों पर ढरक आईं लकीरें
ज्यों किसी छवि पटलिका पर
नापते सौंदर्य मन्मथ ने निसान लगा दिए हों !
तुम न बोलीं मैं न बोला एक क्षण बस
और फिर तुम दूर कोसों दूर
हाथ में सिंदूर लेकर मैं खड़ा
लोग कहते हैं समय फिर लौटता है
लौट आये फिर कहीं शायद पुराना क्षण !  

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