आतिथ्य
तुम्हारा वह खुला आतिथ्य
शुष्क रेतीले दहकते मरुथलों को
अमिय बोझिल बदलियों ने
हरित सुरभित घाटियों में
पकड़कर के चंदनी पुरवाइयों का हाथ
अपने घर दुलारा
बेचारा मरुस्थल सिर्फ बेचारा
सहम कर रह गया
खनकती अमराइयों में
यूँ कि जैसे
गीत कोई ताल स्वर से युक्त
कोकिल कंठ पर जाकर
लजाकर भी उभरता जा रहा हो
इसे भ्रम हो गया है
यह रहेगा ज़िंदगी भर
अधर पर ठहरा
सुमुखि इसका सुखद संभ्रम न तोड़े
तुम्हारा वह खुला आतिथ्य
जो मिल ही गया है
चिरस्थायी मिलेगा !
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