Monday, 14 April 2014



आतिथ्य

तुम्हारा वह खुला आतिथ्य
शुष्क रेतीले दहकते मरुथलों  को
अमिय बोझिल बदलियों ने
हरित सुरभित घाटियों में
पकड़कर के चंदनी पुरवाइयों का हाथ
अपने घर दुलारा
बेचारा मरुस्थल सिर्फ बेचारा
सहम कर रह गया
खनकती अमराइयों में
यूँ कि जैसे
गीत कोई ताल स्वर से युक्त
कोकिल कंठ पर जाकर
लजाकर भी उभरता जा रहा हो
इसे भ्रम हो गया है
यह रहेगा ज़िंदगी भर
अधर पर ठहरा
सुमुखि इसका सुखद संभ्रम न तोड़े
तुम्हारा वह खुला आतिथ्य
जो मिल ही गया है
चिरस्थायी मिलेगा !

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