Tuesday, 1 April 2014

परवाह नहीं

मैंने अपनी परवाह की
भूल गया कि मेरा भी अस्तित्व है
सपनों की परवाह की
और सपने आना बंद हो गए
कविता की परवाह की
तो शब्दों ने भावों साथ छोड़ दिया
परवाह की अपने धैर्य की
और भी आकुल/अशांत हो गया मन
विश्वास की परवाह की
वह भी किसी न किसी बहाने टूटता रहा
अपनी तलाश की परवाह की
तो खुद को तलाशते - तलाशते तुम्हें पाया
सब कुछ छोड़ तुम्हारी परवाह की
और तुम
मेरी परवाह और प्यार से
इतना ऊब गए
कि परवाह के चारो अक्षर
आँसुओं की नदी में ऐसे डूब गए
कि अब मुझे अपने जीवन की भी
कोई परवाह नहीं !

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