Saturday, 5 April 2014



क्या दूँ तुम्हें

एक खालीपन तब भी था
जब तुम नहीं थीं
एक बेताबी अब भी है जब तुम मिलीं
एक तूफ़ान तब आया
जब तुम मेरे रोम - रोम में
मेरे लहू की बूंद - बूंद में
मेरी चेतना के कण -कण में
मेरी आत्मा के शून्य में
मेरे ह्रदय के स्पंदन में झनझनाकर
समा गयीं !
जागी एक बेचैनी मन के साथ
काया की अनिर्वचनीय भूख की
न ख़त्म होने वाली प्यास की
असहनीय तुम्हारी अनुपस्थिति
मेरे समर्पण की धज्जियां उड़ाते
तुम्हारे आरोप तीखे प्रतिउत्तर
तुम्हारी तकलीफें वेध गयीं फौलादी सीना
पोर - पोर में उतर गयीं तुम्हारी उदासियाँ
निकाल गया जान तुम्हारा रूठना
तुम्हारा मौन
दर्द के झकोरों की तरह
लम्हा - लम्हा मार रहा है मुझे
सोच रहा हूँ तुमने हमेशा दिया है
कुछ न कुछ
अब मैं क्या दूँ तुम्हें ?

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