Saturday, 5 April 2014



इन्हें जीवित रखना

आकाश में उड़ती पेड़ों पर चहचहाती
रंग - बिरंगी चिड़ियाँ
भांति -भांति के सुकुमार रंगीन फूलों से सजे
महमहाते उपवन
फूलों पर छिटक - छिटक कर बैठती तितलियाँ
ऊँचे - ऊँचे पर्वत /झर - झर झरते प्रपात
उठता है उनसे ठंढा धवल धुंवां
अलस तोड़ती भोर की स्वर्णिम किरणे
तपा हुआ सोना बिखेरता
उदयाचल से प्रकट होता अंशुमाली
मादक सिहरन जगाती पुरवाई
निरभ्र व्योम में रात भर यात्रा करता
मन का सहचर कलाधर
कल - कल छल - छल बहती नदी
और नदी के दोनों निःशब्द शांत किनारे
बहुत भाते थे मेरे मन को !
मन का खरगोश देह से दूर भटकता रहा
जाने कहाँ - कहाँ इनके साथ
किन्तु यह सब तुम्हारे आने से पहले की घटना थी !
तुम आईं जबसे प्राणों के क़रीब
तबसे मेरी भौतिक आँखें
मेरी आंतरिक दृष्टि तुम्हारी व्यष्टि में
चहचहाती चिड़ियाँ /गंधित फूलों वाले वन
पर्वत और प्रपात /सूर्य और चंद्रमा
पुरवाई और नदी
दोनों का अनवरत बहना
तलाश चुकी हैं
इनसे विलग नहीं कर सकता मेरी दृष्टि
कोई घटना कोई स्पर्श
जहाज़ के पंछी की तरह
सातों सागरों के आकाश में
अपनी उड़ानें व्यर्थ कर मेरा मन
लौट चुका है फिर जहाज पर
क्या तुम इसके लिए ज़िंदा रखोगी
वह सभी कुछ जो इसने तुम्हारी सृष्टि में
तलाश लिया है
तब तक ,जब तक मैं जीवित हूँ !

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