Saturday, 5 April 2014

सुधियों की उल्काएं

परिक्रमारत हैं उल्काएं निरंतर
सुधियों की उल्कायें
 अवचेतन के आकाश में
चेतना की धरती से
  स्थापित करती हैं अपना तादात्म्य
ताप्ती हुई रेट / जलते हुए पाषाण खंड
और शून्य को लपेटने की आग है
इन धधकती उल्काओं में !
मेरे अंतर के बृह्मांड में इनका होना
मेरे होने का प्रमाण है !
कोलाहल उठाती यह उल्काएं
ह्रदय की विशाल झील के नीले जल से
आकर्षित हो
अपनी जलन शांत करने के लिए
टूट - टूट कर गिरतीं हैं
आश्वस्ति ,धैर्य ,तटस्थता
पलायन और प्रतीक्षा जैसे शब्द
सारहीन होकर खो देते हैं अपना अर्थ
शेष बचती है एक मर्मान्तक पीड़ा
असंतोष की उत्ताल लहरें
जिन्हें कोई शब्द /स्वर /गीत /स्पर्श /विचार
सांत्वना का बहाना भी नहीं दे पाता
अंतर और वाह्य के अनंत में
अपना समाधान तलाशता एक सचल शून्य
अपनी रिक्तता की पूर्ति के लिए
जिसे केवल और केवल तुम्हीं
अपने सम्पूर्ण समर्पण और उपस्थिति से
अभीष्ट दे सकती हो
आखिर तुम हो कहाँ ?


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