Sunday, 23 March 2014

कोयलें कहीं गाती हैं

आम के पेड़ के तले  ,खेत की  मेड़  पर बैठ कर
आज फिर बिरहा गा रहा है सोमनाथ
दर्द भरी आवाज़ में टूट कर बिखर जाने की भावुकता
हवा चटख रही थी
आम का पत्ता पत्ता कांप उठे ,ऐसे सुर
लेकिन नहीं निकली पत्तों के झुरमुठ से वह कोयल 
जो धुर सवेरे करती थी इंतज़ार सोमनाथ का
पेड़ के तले  सोमनाथ ने जबसे बिरहा गाना शुरू किया था
सुर कि दीवानी कोयल
सोमनाथ की आवाज़ में घोल दे अपना पंचम सुर
रूह से रूह और मन से मन मिला 
तड़प से तड़प और बिरहा से कुहू-कुहू
फसल को रामभरोसे  छोड़
कहाँ गया था सोमनाथ
नाराज़ थी कोयल पता नहीं था उसे
बहुत बीमार था सोमनाथ
बचपन/जवानी तक लगे बहुत रोग
आज  घाव हरे हो गए 
छूट गया बिरहा
खेत पर जाए तो आम के नीचे बैठ
सूनी आँखों से डाल- डाल , पत्ती - पत्ती ताकता रहे
कभी पलकें भीग जाएँ
कभी आत्मा हो जाए लहू लुहान
नहीं कहा  किसी ने सोमनाथ बिरहा गाओ
मेड़ पर बैठे बैठे उसे इंतज़ार था कोयल का ,कुहू कुहू का
शायद कहीं से प्रकट हो गा उठे
मिल जाए बिरहा को संजीवनी
पता नहीं आम के किस कोटर में थी कोयल
बीत गयी छमाही
भीतर ही भीतर बहुत रोया सोमनाथ
न बिरहा न कोयल
ज़िन्दगी कि सारी  ताकत समेट
लहू लहू की बूँद बूँद शक्ति निचोड़
सीने की  आग गले में उतार
आज बिरहा गा रहा है सोमनाथ
आज नहीं निकली कोयल
 धुआँ धूआँ हो गया आसमान
धूल-धूल हो गयी धरती /मुरझा गयीं फसलें
सोमनाथ कि बुझी बुझी आँखों की  तरह
नहीं निकली फिर भी कोयल
अब उसे केवल बिरहा का सुर लुभा रहा था
उसके पीछे की  तड़प
रूह का आलिंगन और आत्मा का चीत्कार नहीं
मन से मन के  मिलन का  त्योहार
सोमनाथ की  वेदना भी नहीं
बिरहा के सुर के सहारे कितने बंधन बंध गये
खेत कि मेड़ और आम के पेड़ से
सुर क्या ठहरे
पी गए आत्मा का अमृत
प्रेम का पियूष /बेचैनी कि बूँद बूँद मदिरा
इतने महान हो गए सुर
छोटी हो गयी सोमनाथ की  औकात
याद नहीं रहा कुहू कुहू को बिरहा का आलाप
बिरहे के अवरोह के अंतिम अक्षर से
लिपट गयी अंतिम सांस
कान में एक बार पड़  जाती कुहू कुहू
मरता नहीं सोमनाथ,जी जाता बिरहा
कोयल भी कब तक याद रखती कुहू कुहू
आम की  जाने किस कोटर में
कोयल अपने बच्चों को बता रही थी
राम कसम मैंने कभी नहीं गाया
कहीं कोयलें भी गाती हैं ?
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