टूट गया हिमालय
आखिर टूट गया हिमालय
बहुत पहले ही दरक चुका था
नेपोलियन /मुसोलिनी /नीरो और हिटलर,
सभी टूटे, कैसे बचा रहता हिमालय
कितनी आग पी चुके थे पत्थर
कितना पानी सोख चुकीं थीं शिलायें
हर साल बर्फ कि चादर पड़ी
हर साल कोई न कोई नयी नदी
हिमालय का कलेजा फाड़ बह निकली
सभ्यताएं मैदानों में खेलती रहीं
उनकी लिप्साओं के देवदारु
उगते रहे हिमालय के वक्ष पर
सभ्यताएं बिखरी और बदलीं भी
टूट गए उनके गुमानों के गुम्बद
टूट गयीं बादलों में पड़ी बिजली की अगणित हथकड़ियां
भीतर -भीतर दहा ,क्या-क्या नहीं सहा
पर चुप रहा हिमालय
खरगोश ने हिमालय कि सिसकी सुनी
दुबक गया झाड़ में
हज़ारों लाखों बार हवा ने
हिमालय के सीने से निकलता धुंआ। छुआ
खिसक गयी चुपचाप नहीं करायी मुनादी
कानों कान खबर तक नहीं हुई
दहाड़ते शेर चिंघाड़ते हाथी
हुआ-हुआ अलापते सियार
हिमालय के कान फोड़ते रहे
रौंदते रहे वक्षस्थल
अंदाजा तो भालू को भी नहीं था
हिमालय के टूटने पर
वरना पहाड़ियों के मोह पास में नहीं फंसता
दूर दराज़ घरों के छप्परों से उठता धुंआ
आश्वस्ति नहीं टूट सकता इतना बड़ा पहाड़
गंगा यमुना जैसी सैकड़ों नदियां इसकी अमानत
इतना पानीदार
पानी के छकड़े लादे बादलों से उतार लेता पानी
समंदर तक को ललकारता।
कैसे टूट सकता था हिमालय
आदमी तो बन जाता है बिछौना
कभी मखमल का
कभी टाट का
फिर भी स्वाभिमान का दम भरता
मिट जाएगा पर झुकेगा नहीं
हिमालय टूट कर भी नहीं मरा
टूटी शिलाएं किसी का बिस्तर नहीं बनी
आखिर ये टुटा कैसे
कौन पैदा हो गया चंद्रकांता का वीरसिंह
तोड़ डाला तिलिस्म की तरह।
दरक तो उस दिन गया
जब गंगा ने मैदान में खुद को पुजवाया
पर तटस्थ रही हिमालय कि आलोचना पर।
शायद तब
जब गलबहियां डालें बदल और बदली
हिमालय को अश्पृश्य समझ कर लौट गए
या उस वरस
जब पेड़ों से चिपके किसी संत को
हलाक़ कर दिया था वनमाफियाओं ने।
अब पूरी तरह टूट गया हिमालय
आकाश तो ज़माने का दुश्मन था
आग तक बरसा चूका था
धरती ने बस एक बार आशंका की दृष्टि से देखा
भरभरा कर ढह गया हिमालय
कच्चा मकान भी नहीं ढहता ऐसे ही
अकल्पनीय ढंग से बिखरा हिमालय
किसी का कुछ नहीं बिगड़ा
कहीं कोई आँख नहीं भीगी
एक परिंदा तक नहीं फड़फड़ाया
किसी नदी में नहीं आया उबाल
सबकुछ यथावत
केवल हिमालय ही नहीं रहा।
आखिर टूट गया हिमालय
बहुत पहले ही दरक चुका था
नेपोलियन /मुसोलिनी /नीरो और हिटलर,
सभी टूटे, कैसे बचा रहता हिमालय
कितनी आग पी चुके थे पत्थर
कितना पानी सोख चुकीं थीं शिलायें
हर साल बर्फ कि चादर पड़ी
हर साल कोई न कोई नयी नदी
हिमालय का कलेजा फाड़ बह निकली
सभ्यताएं मैदानों में खेलती रहीं
उनकी लिप्साओं के देवदारु
उगते रहे हिमालय के वक्ष पर
सभ्यताएं बिखरी और बदलीं भी
टूट गए उनके गुमानों के गुम्बद
टूट गयीं बादलों में पड़ी बिजली की अगणित हथकड़ियां
भीतर -भीतर दहा ,क्या-क्या नहीं सहा
पर चुप रहा हिमालय
खरगोश ने हिमालय कि सिसकी सुनी
दुबक गया झाड़ में
हज़ारों लाखों बार हवा ने
हिमालय के सीने से निकलता धुंआ। छुआ
खिसक गयी चुपचाप नहीं करायी मुनादी
कानों कान खबर तक नहीं हुई
दहाड़ते शेर चिंघाड़ते हाथी
हुआ-हुआ अलापते सियार
हिमालय के कान फोड़ते रहे
रौंदते रहे वक्षस्थल
अंदाजा तो भालू को भी नहीं था
हिमालय के टूटने पर
वरना पहाड़ियों के मोह पास में नहीं फंसता
दूर दराज़ घरों के छप्परों से उठता धुंआ
आश्वस्ति नहीं टूट सकता इतना बड़ा पहाड़
गंगा यमुना जैसी सैकड़ों नदियां इसकी अमानत
इतना पानीदार
पानी के छकड़े लादे बादलों से उतार लेता पानी
समंदर तक को ललकारता।
कैसे टूट सकता था हिमालय
आदमी तो बन जाता है बिछौना
कभी मखमल का
कभी टाट का
फिर भी स्वाभिमान का दम भरता
मिट जाएगा पर झुकेगा नहीं
हिमालय टूट कर भी नहीं मरा
टूटी शिलाएं किसी का बिस्तर नहीं बनी
आखिर ये टुटा कैसे
कौन पैदा हो गया चंद्रकांता का वीरसिंह
तोड़ डाला तिलिस्म की तरह।
दरक तो उस दिन गया
जब गंगा ने मैदान में खुद को पुजवाया
पर तटस्थ रही हिमालय कि आलोचना पर।
शायद तब
जब गलबहियां डालें बदल और बदली
हिमालय को अश्पृश्य समझ कर लौट गए
या उस वरस
जब पेड़ों से चिपके किसी संत को
हलाक़ कर दिया था वनमाफियाओं ने।
अब पूरी तरह टूट गया हिमालय
आकाश तो ज़माने का दुश्मन था
आग तक बरसा चूका था
धरती ने बस एक बार आशंका की दृष्टि से देखा
भरभरा कर ढह गया हिमालय
कच्चा मकान भी नहीं ढहता ऐसे ही
अकल्पनीय ढंग से बिखरा हिमालय
किसी का कुछ नहीं बिगड़ा
कहीं कोई आँख नहीं भीगी
एक परिंदा तक नहीं फड़फड़ाया
किसी नदी में नहीं आया उबाल
सबकुछ यथावत
केवल हिमालय ही नहीं रहा।
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