Sunday, 28 August 2011

दोहा

आँखों में लज्जा नहीं ,बलिदानों पर क्लेश |
ऐसे लोगों को रहा झेल हमारा देश ||

बलिदानों की तेरहवीं ,लगा रहे हैं भोग |
महापात्र इस में ,राजनीति के लोग ||

धमकी पर धमकी चढ़ी ,वादों  पर प्रतिवाद |
मर्द मौन हो सुन रहे ,हिजड़ो का संवाद ||

घर छूटा कुर्सी गयी ,चढ़ा प्यार का भूत|
चाँद मोहम्मद बन गये ,भजनलाल के पूत||

यह तो दिल का रोग है ,ले लेता है प्राण |
क्या कुर्सी क्या संपदा ,कहें संत कल्याण ||

विश्वासों के घाव पर लगा नहीं अवलेह |
जितनी ज्यादा प्रीति है ,उतना ही संदेह ||

मन के पंछी ने दिए ,अपने पंख पसार|
नीले नभ तक हो गया ,सपनों का विस्तार ||

सागर नदिया के लिए ,क्यों हो रहा अधीर |
नदिया में जब बह रहा ,सागर का ही नीर ||

लोहे को सोना किया ,पारस हुआ अनाम |
सोना लेकर फिर रहा ,स्वर्णकार का नाम ||

शर्मिष्ठा के रूप से फिर छल गया ययाति  |
रही देवयानी खड़ी,चकित सदा की भांति ||

जितना ही मन को दिया ,इस दुनिया ने दाह|
उतना ही बढ़ता गया ,प्राणों का उत्साह ||

थोड़ी सी बरसात में ,छोड़ गयी उद्यान |
मरुथल में किस भांति हो ,कोयल की पहचान ||

सुविधा के साम्राज्य में ,ऐसी कर की मार|
बंद हो गया आज कल ,मन वाला व्यापार||

तेरा हर व्यवहार है ,वचनों के प्रतिकूल |
कांटे दामन में भरे ,दिखलाए थे फूल||

पावक कैसे हो सके ,दीपशिखा के साथ |
सीली-सीली तीलियाँ ,गीले-गीले हाथ ||

बंद हो गये शांति के सारे पावन स्रोत |
रक्त सने कर से उड़े ,लहूलुहान कपोत ||

मर्यादाओं को मिली ,पुरखों वाली देह|
नई रौशनी पा गयी ,युग का नूतन गेह||

दागहीन चादर लिए ,प्यासा खड़ा कबीर |
किसको अवसर है ,यहाँ दे करुना का नीर  ||

वे बादल दल में बटे ,जो लाये थे नीर |
खेतों के खाते लिखी ,सूखे की जागीर ||

राजा के दरबार में मिला सभी को न्याय |
तोते को पिंजरा मिला ,मिली शेर को गाय||

बेटा लोहू से करे ,मुखिया का अभिषेक |
इतना कर्जा दे गये , बाप अंगूठा टेक ||

कैसे आंचल में भरे ,साहब का आशीष |
तन का कुरता ले चुकी ,बाबू की बख्शीश ||

मानसरोवर में लगी अब हंसों पर रोक|
बगुलों ने दावा दिया न्यायालय में ठोंक ||

सुविधा भोगी हो गये ,सारे पीर फकीर |
वायुयान में बांचते ,राजा की तक़दीर ||

शैतानों की भीड़ में ,खोये हैं इन्सान |
किसको अवसर है यहाँ ,कौन करे पहचान ||

भीषण गर्मी में दिखे पावस ऋतु के चित्र |
बादल मल कर चल दिए ,पुरवाई के इत्र ||

तपते -तपते गाल पर ,शीतल जल की बूंद |
आनंदित होती रही ,पुरवा आंखे मूंद ||

मौसम का रुख देखकर ,सारा उपवन मौन |
चुप्पी क्या रंग लायगी, इसको जाने कौन ||

            ooooooooooooooooo

Thursday, 18 August 2011

मुक्तक

हरहराती नदी की तरह तुम मिले |
एक पल में सदी की तरह तुम मिले ||
चार छन का मिलन उम्र भर की व्यथा,
इस तरह त्रासदी की तरह तुम मिले ||


अंततः हट गया आवरण आपका ,
प्रीति का छल भरा व्याकरण आपका|
दो पटरियों सरीखा रहा सर्वदा ,
लसफा आपका आचरण आपका ||


प्रेम का सत्य थे पर वृथा हो गये |
जिंदगी के हवन की पृथा हो गये |
अब सुनाएँ किसे जो लिखी आपने ,
हम अंधेरों की आदिम कथा हो गये ||


बद्लिओं सी मिली प्यास देकर गयी |
चाहतों सी मिली त्रास देकर गयी |
एक सीता जनकपुर गयी लौटकर ,
राम को फिर से वनवास देकर गयी ||

गीत

सूने सूने सम्बन्ध हुए |
घायल करुणा के छंद  हुए ||
संस्कृति का विकल पलायन है|
हर ओर स्वार्थ का वंदन है ||
कोई न मानता  है मानवता के मत को |
फिर एक विवेकानंद चाहिए भारत को ||

परमार्थ स्वयं असहाय हुआ |
अध्यात्म शुद्ध व्यवसाय हुआ ||
चिंतन में कहीं न देश यहाँ |
सुविधाओं के संदेश  यहाँ |\
दर्शन तो मात्र प्रदर्शन है |
बस सत्ता का आकर्षण है ||\
सच का अस्तित्व उदास हुआ |
आलोक तिमिर का दास हुआ ||
कोई न देखता है पीढ़ी के आगत को |
फिर एक विवेकानंद चाहिए भारत को ||

उपचार सभी उपयुक्त करे |
मानव को भय से मुक्त करे ||
आतंकों का परिहार करे |
अन्यायों का प्रतिकार करे ||
पौरुष को सच से जोड़ सके |
लिप्सा के बंधन तोड़ सके |\
हर ले संस्कृति के शोक सभी |
उन्मुक्त करे आलोक सभी ||
पाले जो अपराजेय ज्ञान वाले व्रत को |
फिर एक विवेकानंद चाहिए भारत को ||

बदले वैश्विक परिवेश सभी |
सीमाओं में हो देश सभी ||
शोषित की आत्मा जगा सके |
शोषण में पावक लगा सके ||
जो मनुज धर्म का वरण करे |
जन गण मन में संचरण करे  ||
संहार  करे हर संशय का |
जो हो प्रतीक सुर्योदय का||
 अभिव्यक्त कर सके जो भारत के अभिमत को |
फिर एक विवेकानंद चाहिए भारत को ||

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Monday, 1 August 2011

गजल

मेरे घर उनकी आमद है |
आज कहीं भी जाना रद है ||
चंद  लफ्ज़ मीठे भी बोलो |
आखिर किस मदिरा का मद है ||
सबके अपने राग अलग हैं |
मेरा घर है या संसद है ||
मज़हब तूने फर्क बताए |
यह मोहन है यह अहमद है ||
वक़्त नाप देता है सबको |
किस काया का कितना कद है ||
तू बिछुडेगा  यही  सोचकर   ,
तुझसे मिलना भी त्रासद है ||
यहाँ कोई उपदेश न देना ,
यह दिलवालों की परिषद है ||
यह मेरा दिल मेरा है पर |
यही आपका घर शायद है ||
मैं नरेश तेरा यात्री हूँ |
तू मंजिल है, तू सरहद है  ||

  

गजल

सचाई का तमाचा झूट का मन तोड़ देता है |
वो चेहरा देखता है और दर्पण तोड़ देता है ||
लहू के गर्म रिश्तों में बगावत यूँ नहीं होती |
कोई बाहर का माहिल घर का आँगन तोड़ देता है ||
परों को खीच लेती है खुले  अम्बर की आज़ादी |
परिंदा यूँ नहीं पिंज़रे  का बंधन तोड़ देता है ||
कोई दूरी बनाता है तो मन को चोट लगती है |
कोई रहता है  दिल में और जीवन तोड़ देता है ||
तड़प पूछो नहीं उनकी जिन्हें डसती है तन्हाई |
फुहारों में भिगो कर और सावन तोड़ देता है ||
मुफलिसी तोड़ देती है जवानी के हंसी सपने |
शराबी बाप खुद बचों का बचपन तोड़ देता है ||
जहां पर टूट जाती हैं ज़माने भर की शमशीरें |
उन्हीं पत्थर दिलों को एक कंगन तोड़ देता है ||
नरेश देखि चमक तो कह दिया सोना तुम्हे मैंने |
कहीं सोना कसौटी पर खरा पण छोड़ देता है ||



ग़ज़ल


नहीं काटनी थी मगर काटता है
मेरा यार मेरी डगर काटता है ||
घनी बदलियाँ हैं निगाहों में फिर भी ,
शरारों में  सारी उमर काटता है ||
कहाँ दुश्मनों की चली चाल कोई ,
गला तो ये लख्तेजिगर काटता है ||
नहीं पैरवी    हो  सकी चाहतों की , 
मुकदमा मेरा अब सफ़र काटता है ||
तेरे इस ज़ुनू  से तुझे क्या  मिलेगा ,
समन्दर की चढती लहर काटता है ||
येअय्यारियां किसलिए किसकी खातिर,
तू क्यों जिंदगी दर बदर काटता है ||
कहीं बंधकों की तरह रह न जाए |
खयालों को बस एक दर काटता है ||
इसे पड़ गई तेरे पिंजरे की  आदत |
तू क्यों इस परिंदे के पर काटता है ||
ये खुद कर चूका है उड़ानों से तौबा |
तू क्यों इस परिंदे के पर काटता है ||
निभाया है किरदार का सिद का जिसने |
तू क्यों उस परिंदे के पर काटता है ||
मैं इस जिंदगी को करूँ क्या की जिसको |
तेरे चाहतों का ज़हर काटता है ||
घनी छांव से ही अदावत है उसको |
वो दुष्यंत का गुल मोहर काटता है ||
मेरी छट पटाहट पे मुस्कान उसकी |
सितमगर ज़हर से ज़हर काटता है ||
बहुत तेज़ है धार तर्कों में उसके |
वफाओं का मेरी असर काटता है ||
नहीं उसकी खुशबू रही मेरे घर में |
 ये बेजान सा मुझको घर काटता है ||
मेरे दर्द को मेरी बेचैनियों को |
मेरी शायरी का हुनर काटता है ||
बड़ी धार है उसकी कातिल नज़र में |
ज़माने की हर बद्नज़र काटता है  ||
नरेश तेरी परवाह उसको नहीं है |
तू यादों में जिसकी उमर काटता है ||