Thursday, 8 September 2011

दोहे

जाड़े में जाड़ा नहीं, पावस में बरसात |
ऋतुओं को भी लग गयी राजनीति की वात||

कोयल बैठी नीम पर, पिय को रही पुकार |
क्या जाने इस देश फिर, लौटे नहीं बहार ||

साँसों में अनुराग के ज्यों ही महके फूल|
आँखों में उड़ने लगी, लाचारी की धूल ||

कठिन परीक्षा दी मगर, मिला नहीं परिणाम |
प्रश्न पत्र पर लिख दिया, किसी और का नाम||

सुविधाओं का अनवरत ,झरता रहा प्रताप |
उतना जल उसको मिला थी जितनी औकात ||

यह कैसा आक्रोश है ,यह कैसा उन्मेश |
घटना हो परदेश में जलता अपना देश ||

तापमान बढ़ने लगा  ,सर पर चढ़ा जुनून|
गंजे को अधिकार से मिले बड़े नाख़ून ||
बड़े बड़े तरु गिर गए , बिखर गया अभिमान |
आकर अपने बाग़ से ,चला गया तूफान ||

गठरी लेकर ज्ञान की , घूम रहे विद्वान |
नासमझों के गाँव में ,कौन करे सम्मान ||

पानी ही पानी दिखा ,कम्पित हुआ पहाड़ |
बादल ने ही जल-प्रलय ,धरती पर है बाढ़ ||

पानी ने पानी दिया ,सबका यहाँ उतार |
पानी पानी हो गए सारे पानीदार ||

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