Sunday, 6 November 2011

परिचित लोग



नमस्ते ! हाल क्या है आपका , परिवार कैसा है |
इन दिनों दोस्ती का यह नया इज़हार कैसा है ||
बस इतना पूछ कर ही फ़र्ज़ पूरा हो गया उनका |
फ़क़त इंसानियत का क़र्ज़ पूरा हो गया उनका ||
वो देखो जा रहे हैं दौड़कर पीछे से जाओगे |
उन्हें फुर्सत नहीं है तुम व्यथा कैसे सुनाओगे ||
कहीं वह दर्द सुन भी लें तो ऐसा मुंह बनायेंगे |
कि जैसे बाप की अर्थी उठाने ये ही आयेंगे ||
ये हैं हमदर्दियों के घर ,इन्हें कुछ गम नहीं होता |
मगर चेहरे पे इनके भाव दुःख का कम नहीं होता ||
इन्हें अपना समझ कर यदि ख़ुशी अपनी बताते हो |
तरक्की की कथा अपनी,अगर इनको सुनाते हो ||
तो अपने दिल का दरवाजा ख़ुशी से खोल देंगे ये |
तो दावत हो गयी पक्की हमारी ,बोल देंगे ये ||
तुम्हारे गम या खुशियों की ,कहानी से नहीं मतलब |
तुम्हारे सत्य से या लंतरानी से नहीं मतलब ||
ये परिचित लोग हैं ,परिचय से आगे बढ नहीं सकते |
तुम्हारी क्या किसी  की भावना को पढ़ नहीं सकते ||
अगर इनको कहीं से लाभ कुछ होता दिखाई दे |
कोई वह काम जो इनको ,कोई लम्बी कमाई दे ||
तो रूककर आपसे रिश्ता गज़ब का जोड़ लेते हैं |
ज़रूरी काम भी ऐसे समय पर छोड़ देते हैं ||
मोहब्बत के भवन के द्वार सारे खोल देते हैं |
सलाहें जिंदगी की फिर तुम्हें अनमोल देते हैं ||
तुम्हारे साथ तो पिछले जनम से ही लगे हैं ये |
अगर हित सिद्ध होता है तो फिर सबसे सगे हैं ये ||
कभी भी दर्द अपना इनके आगे गुनगुनाना मत |
कभी भी आंसुओं का एक भी दीपक दिखाना मत ||
ज़रूरी हो बहुत किस्सा मगर इनको सुनाना मत |
लबों पर आ भी जाए बात कोई पर बताना मत ||
ये जो रिश्ता निभाते हैं ,उसे तुम भी निभा देना |
ये मिलकर मुस्कुराते हैं तो तुम भी मुस्कुरा देना ||
ये धारा बह रही जैसी उसे वैसी ही बहने दो |
ये परिचित लोग हैं प्यारे इन्हें परिचित ही रहने दो ||
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Saturday, 5 November 2011

सुनामी आ गयी

 
ह्रदय का सागर बहुत कांपा
और नैंनों तक सुनामी आ गई ||

स्वप्नके पंछी कहाँ जाएँ ,घोंसले तक आ गया पानी |
पेड़ की औकात ही क्या है ,पर्वतों को खा गया पानी ||
अब न जाने राम क्या होगा ,
प्रलय की बदली गगन में छा गई ||

मैं तुम्हारे झूठ को जीकर ,खुश बहुत था क्या किया तुमने |
आज दशकों बाद जाने क्यों ,एक सच बतला दिया तुमने ||
मैं तुम्हारा सिर्फ ग्राहक था ,
आपकी कातिल नज़र समझा गई ||

क्या बिगड़ जाता तुम्हारा ,जिन्दगी के चार दिन थे |
क्या न तुमसे कट रहे थे ,शेष पल इतने कठिन थे ||
मैं तुम्हारा एक मुहरा था ,
प्यार की गीतांजली पथरा गई ||
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Friday, 4 November 2011

मैना पाली है



खालीपन भरने को ये तरकीब निकाली है |
यार तुम्हारे नाम से घर में मैंना पाली है ||

रोज़ सुबह ही इससे होतीं लम्बी लम्बी बातें ,
उसे बताता हूँ कैसे काटी बिरहा की रातें ||
यह भी मेरी बातें सुनकर शीश हिलाती है |
आँखें घुमा घुमाकर जाने क्या समझाती है ||
यह मेरे सारे तालों की इकली ताली है |
यार तुम्हारे नाम से घर में मैना पाली है ||

उसे खिलाना और पिलाना अच्छा लगता है |
उसको अपने गीत सुनाना अच्छा लगता है ||
उसे देखता रहता हूँ वह इतना भाती है |
मैं गाता हूँ तो लगता है वह भी गाती है ||
कितनी सुन्दर है वह कितनी भोली भाली है |
यार तुम्हारे नाम से घर में मैना पाली है ||

मेरे सुख दुःख बाँट रही है बोल नहीं सकती |
मेरी कमियों का भी चिट्ठा खोल नहीं सकती ||
मेरी आँखों में सपनों के दीप जलाती है |
मैं उदास होता हूँ तो अनमन हो जाती है ||
इसने मेरे जीने की लालसा बचाली है |
यार तुम्हारे नाम से घर में मैना पाली है ||

पिंजरे में रहती है फिर भी गिला नहीं करती |
मुझसे कभी क्रोध में आकर मिला नहीं करती ||
मेरी प्यार भरी बातों से शर्मा जाती है |
मेरी साँसों की चिट्ठी तुम तक पंहुचाती है ||
थोड़ी शर्मीली है थोड़ी नखरों वाली है |
यार तुम्हारे नाम से घर में मैना पाली है ||

जब तक पिंजरा बंद तभी तक इससे नाता है |
यह रिश्तों का जाल हमें हर पल भरमाता है ||
जिस दिन इसकी प्रीति परिंदों से जुड़ जायेगी |
पिंजरा खुलते ही तुम जैसी यह उड़ जायेगी ||
यह सच्चाई दिल में अपने खूब बिठाली है |
यहाँ प्यार का मतलब संवेदन को गाली है ||
यार तुम्हारे नाम से घर में मैना पाली है ||

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कोई ऐसा बाज़ार नहीं

सब मांग रहे अपने अपने अहसानों का बदला मुझसे ,
मेरी कृतज्ञता का भी पारावार नहीं |
मैं कैसे चुकता करूँ भरूँ यह ऋण कैसे ,
अपनी साँसों पर भी मेरा अधिकार नहीं ||

माता ने जनम दिया और प्यार दुलार दिया,
अपनी ममता से करुना का संसार दिया |
पालन कर्ता का चढ़ा पित्र ऋण बाकी है ,
गुरुओं ने विद्या दी जीवन का सार दिया ||
मैं लाख जतन करके भी दे न सका खुशियाँ ,
मेरी श्रृद्धा के लिए कोई तैयार नहीं |\

भाई बहनों का ऋण भी नहीं किसी से कम ,
सम्बन्ध रुधिर के यह उनके ही कारण हैं |
मेरे अब तक के सारे किये गए उपक्रम ,
बेमतलब हैं नाकाफी हैं साधारण हैं ||
उनको लगता है उन्हें छोड़कर दुनिया में ,
मेरा कोई भी है अपना संसार नहीं ||

जो भी समाज में मान प्रतिष्ठा मिली मुझे ,
या किसी रूप में जो भी मुझ पर दौलत है |
पत्नी कहती है ,तेरी कुछ औकात नहीं ,
तेरा क्या है वह सब तो मेरी बदौलत है ||
सब कुछ उसका है तो फिर कर्ज चुकाने को ,
मैं कहाँ बिकूं  ऐसा कोई बाज़ार नहीं ||

बेटा  बेटी जिनके कारण मैं बाप बना,
उनके अहसानों का कुछ बदला दिया नहीं |
मैं जो करता हूँ वह तो है दायित्व मेरा ,
उनका कहना है मैंने कुछ भी किया नहीं ||
लगता है अगले कई जनम लग जायेंगे  ,
पर हो पाऊँगा मैं इनसे उद्धार नहीं ||

है इस समाज का भी हर पग पर क़र्ज़ चढ़ा ,
मित्रों का , दुनिया के सब रिश्तेदारों का |
टुकड़े टुकड़े बट गया मेरा सारा वजूद
आत्मा पर भी है बोझ बहुत उपकारों का||
मैं द्वार द्वार का देनदार हूँ दुनिया में ,
मेरा अपना कोई कोई स्वतंत्र किरदार नहीं ||

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Wednesday, 28 September 2011

गीतिका

नहीं काटनी थी मगर काटताहै |
मेरा प्यार मेरी डगर काटता है ||
घनी बदलियाँ हैं निगाहों में फिर भी ,
शरारों पे साड़ी उमर काटता है ||
कहाँ दुश्मनों की चली सचल कोई ,
गला अपना लख्तेजिगर काटता है ||
नहीं पैरवी हो सकी चाहतों की ,
मुकदमा मेरा अब सफ़र काटता है ||
तेरे इस जुनूं से तुझे क्या मिलेगा ,
समंदर की चढ़ती लहर काटता है ||
ये  ऐय्यारियां किसलिए किसकी खातिर ,
तू क्यों जिंदगी दर -ब-दर काटता है ||
कहीं बंधकों की तरह रह न जाए ,
खयालों  को बस एक डर काटता है ||
इसे पड़ गयी तेरे पिंजरे की आदत ,
तू क्यों इस परिंदे के पर काटता है ||
ये खुद कर चुका है उड़ानों से तौबा,
तू क्यों इस परिंदे के पर काटता है ||
निभाया है किरदार कासिद का जिसने ,
तू क्यों उस परिंदे के पर काटता है||
मैं इस जिंदगी का करूँ क्या कि जिसको ,
तेरी चाहतों का ज़हर काटता है ||
घनी छाँव से ही अदावत है उसको ,
वो दुष्यंत का गुलमोहर काटता है,
 मेरी  छटपटाहट पे मुस्कान उसकी ,
सितमगर ज़हर से ज़हर काटता है ||
बहुत तेज़ है धार तर्कों में उसके ,
वफाओं का मेरी असर काटता है ||
मेरे घर में अब उसकी खुश्बू न आह्ट,
ये बेजान सा मुझको घर काटता है ||
मेरे दर्द को मेरी बेचैनियों को ,
मेरी शायरी का हुनर काटता है ||
नरेश तेरी परवाह उसको नहीं है ,
तू यादों में जिसकी उमर काटता है ||
         oooooooooo

ग़ज़ल

टुकड़ा- टुकड़ा जीने की लाचारी होता है |
अगर यही है प्यार  तोह ये बिमारी होता है ||
आँखों का सूनापन ,या खालीपन सीने का ,
जाने किसके स्वागत की तैयारी होता है ||
शायद उस रुसवाई   के पीछे भी उल्फत हो ,
एक नशा है जो यकीं पर तारी होता है ||
इतने गम इतनी बेचैनी औ इतने आँसू,
लम्हा लम्हा अब उसका आभारी होता है ||
उसको पता नहीं है , उसके इंतज़ार वाला ,
एक एक पल दिल पर कितना भारी होता है ||
वैसे तो मेरी आँखों के आँसू पी जाता ,
चख कर बोला यह पानी तो खारी  होता है ||
नहीं स्वांति -जल ,ते प्यासे मरने की मजबूरी ,
यह ज़ज्बा ही चाहत की खुद्दारी होता है ||
कत्लगाह तक तो 'नरेश ' को उसने पहुँचाया
क़त्ल का फतवा और किसी से जारी होता है ||
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Tuesday, 27 September 2011

आह्लाद जिया

जीने को यूँ भी जी लेता , लेकिन मैंने अपवाद जिया |
दो चषक प्रीतिके जीने थे , सौ -सौ  कलशे  अवसाद जिया ||
प्राणों की विकल  पिपासा ने ,
शीतल सरिता का जल पाया |
लेकिन उस जल की चाहत ने ,
मोहक शब्दों का छल पाया ||
शहदीली अभिलाषाओं ने अनपेक्षित सा आस्वाद जिया |
दो चषक प्रीति के जीने थे सौ -सौ कलशे अवसाद जिया ||
घटनाये रहीं चीखती पर ,
विश्वासों का श्रृंगार किया |
पागल विवेक के तकों को ,
अंतस ने अस्वीकार किया ||
वादों , वचनों की बेला में , मनुहारों ने प्रतिवाद जिया |
दो चषक प्रीति के जीने थे , सौ-सौ कलशे अवसाद जिया |\
अच्छा था पूर्ण समर्पण से,
पहले अहसास बिखर जाता |
हर सपना सूनी आँखों में ,
आने से पहले मर जाता ||
सुख की बाहें सुस्म्रतियाँ हैं , पीड़ाओं का अनुवाद जिया| 
दो चषक प्रीति के जीने थे सौ-सौ कलशे अवसाद जिया ||
मुझको छूना , मुझमें घुलना .
मेरी सांसों में खो जाना |
हर आकुलता का मर जाना ,
संवेदन पत्थर हो जाना |\
संबंधों की अकुलाहट ने अंतर्वेधी सम्वाद जिया |
दो चषक प्रीति के जीने थे , सौ-सौ कलशे अवसाद  जिया ||
अब तुझसे क्या शिकवा करना ,
मुझको मुझसे हरने वाले |
मेरी खातिर जीने वाले ,
मेरी खातिर मरने वाले ||
मैंने तो हर पल जीवन में आँसू -आँसू आह्लाद जिया |
दो चषक प्रीति के जीने थे ,सौ- सौ कलशे अवसाद जिया| 
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Monday, 26 September 2011

गीत


यहाँ सब स्वप्न सी सच्चाईयाँ हैं , तुम नहीं हो |
समय की टूटती अंगडाइयां  हैं , तुम नहीं हो ||
हमारे गाँव में वर्षा वधू की पालकी उतरी ,
गगन में मेघ देखो आके घहराने लगे हैं |
घुंघुरुओं की तरह से छनकती हैं भूमि पर बूंदें ,
सरोवर मौन थे वह भैरवी गाने लगे हैं ||
ये बंदनवार सी अमराइयाँ हैं तुम नहीं हो |
यहाँ सब स्वप्न सी सच्चाइयाँ हैं तुम नहीं हो ||

घनी बसवारियों के बांस परिणय खंभ जैसे |
तुम्हारी भांवरों की चिर प्रतीक्षा में खड़े हैं ||
निशा की श्याम आँचल में दमकते हीरकों से |
अनगिनत जुगनुओं के रत्न मनमोहक जड़े हैं ||
पिकी की बज रही शहनाइयाँ हैं तुम नहीं हो |
यहाँ सब स्वप्न सी सच्चाइयाँ हैं तुम नहीं हो ||

यह हरियाली लिए है रंग आँचल का तुम्हारे |
दिशाओं में तुम्हारी खुशबुएँ फैली हुई है ||
हमारी यह सघन अनुभूतियाँ जो जागती हैं |
तुम्हारी चेतना की उँगलियों से अन छुई हैं ||
बहुत मादक हुई पुरवाइयां  हैं तुम नहीं हो| 
यहाँ सब स्वप्न सी सच्चाइयाँ  हैं तुम नहीं हो ||  

उपस्थिति है तुम्हारी पर हमारी कल्पना में |
तुम्हे यह घर ,यह देहरी , द्वार छूकर देखना चाहें ||
हमारी गाँव की गलियाँ , बगीचे , खेत, चौबारे ,
तुम्हारे गात को साभार छूकर देखना चाहें ||
ये स्वागत में सजल अंगनाइयां हैं तुम नहीं हो |
समय की टूटती अंगनाइयां हैं तुम नहीं हो ||
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Tuesday, 20 September 2011

हमारी  रक्त रंजित ईद होली कौन करता है ?

बनाई स्रष्टि ईश्वर ने तो कितना ध्यान रक्खा था |
कि हर सै में कोई सपना कोई अरमान रक्खा था ||
मुहब्बत नाम से चेहरा कोई वो दे नहीं पाया ,
तो उसने प्यार का उन्वान ही इन्सान रक्खा था ||

धरा पर उस बड़े फनकार कि कारीगरी हम हैं |
ये दुनिया है विधाता कि तो इसकी जिंदगी हम हैं||
दिया उसने जो हमको और किसके पास है बोलो ,
कि उस शायर की सबसे खुबसूरत शायरी हम हैं ||

हमारी जिंदगी को उसने सुबहोशाम सौंपे हैं |
हमारी जिंदगी को प्यार के पैगाम सौंपे हैं ||
दया,करुना, मुहब्बत ,एक दूजे के लिए मिटना,
हमारी धडकनों को उसने कितने काम सौंपे हैं ||

यहाँ मरती रहीं किलकारियां हर ओर हम भी थे |
यहाँ जलतीं रहीं फुलवारियां हर ओर हम भी थे ||
हमारे सामने मिटती रहीं कृतियाँ विधाता की ,
यहाँ बढ़तीं  रहीं बीमारियाँ हर ओर हम भी थे ||

यहाँ पर ,क्या यहाँ पर ,राम या रहमान रहते हैं ?
इसी धरती पे क्या मालिक तेरे अरमान रहते हैं ?
यहाँ पर हर तरफ शैतान का साम्राज्य फैला है ,
यहाँ क्या वाकई में रव तेरे इन्सान रहते हैं ?

यहाँ नफरत की डायन गा रही थी और हम भी थे |
नदी उन्माद की लहरा रही थी और हम भी थे |
लुटीं कोखें मिटीं मांगें ,अनाथालय बनी बस्ती ,
सियासत मौत सी मंडरा रही थी और हम भी थे ||

हमारे प्यार का बंधन जला हम कुछ नहीं बोले |
हमारी सभ्यता का धन जला हम कुछ नहीं बोले |
मुहब्बत का दिया ही जल न पाया दोस्तों हमसे ,
यहाँ चारों तरफ जीवन जला हम कुछ नहीं बोले ||

हमारा तन व मन गिरवी रखा था इसलिए चुप थे |
हमारा अपनापन गिरवी रखा था इसलिए चुप थे |
ज़बानों पर हमारी क्यों थे ताले लोग पूंछेंगे ,
हमारा ज़ेहन भी गिरवी रखा था इसलिए चुप थे ||

कहाँ पर सर झुकायेंगे ,कहाँ पर मुंह छुपायेंगे |
हमारी पीढियां पूछेंगी उनसे क्या बताएँगे ||

लड़ाता कौन है हमको यहाँ हर बार ये सोचो |
बनाता  कौन है हमको यहाँ  लाचार   ये सोचो ||
सियासत चाहती है और हम आपस में लड़ते हैं |
हमारी जिंदगी का कौन है मुख़्तार ये सोचो ||

हमारे घर में भी मरियम सी माँ है सोचना होगा |
हमारे घर में भी बिटिया जवां है सोचना होगा ||
हमारे फूल से बच्चे हमारी राह तकते हैं |
हमारे सामने भी आइना है सोचना होगा ||

हमारी रक्त रंजित ईद होली कौन करता है |
हमारी दर्द से लबरेज़ झोली कौन करता है |
हमारी जिंदगी को दो निवाले दे नहीं सकता ,
हमारी भूख से आकर ठिठोली कौन करता है ||

हमें हिन्दू या मुस्लिम कौन करता  है यहाँ बोलो |
कौन उन्माद की बारूद भरता है यहाँ बोलो ||
हमें हर  हाल में ही तोड़ने का यत्न करता है ,
हमारी एकता से कुन डरता है यहाँ बोलो ||

उसे देखो जिसे किलकारियां अच्छी नहीं लगतीं |
हमारे देश की फुलवारियाँ अच्छी नहीं लगतीं ||
जिसे सम्मान भारत वर्ष का अच्छा नहीं लगता ,
जिसे इस मुल्क की खुद्दारियां अच्छी नहीं लगतीं ||

हमारे रास्ते को दिन ब दिन दुश्वार करता है |
हमारे देश के सद् भाव को बीमार केरता है ||
जो डॉलर ,पौंड या दीनार के हाथों बिका बैठा |
हमारे प्यार के आँगन  में जो दीवार करता है ||
उसे खोजो तभी देश का अंधियार जाएगा |
वो जिंदा रह गया तो देश अपना  हार जायेगा |
उसे सूली चढ़ा दो या उसे जिंदा दफ़न कर दो ,
नहीं तो प्यार के रिश्तों को लकवा मार जायेगा ||

लहू है कीमती इसको न सड़कों पर बहाओ तुम ,
वतन पर आँच आई तो वतन का काम आएगा |
लहू इस मुल्क का यदि खौल उटठा जो मेरे भाई ,
तो ये संसार सारा एक पल को कांप जायेगा || 


Saturday, 17 September 2011

तिरंगा

भारत की अस्मिता का एक नाम तिरंगा |
बलिदानियो के रक्त का परिणाम तिरंगा ||
उद्दाम राष्ट्र चेतना का धाम तिरंगा |
फहरा रहा है विश्व में अविराम तिरंगा ||
भारत की आन बान है धरती की शान है |
यह ध्वज नहीं है देश का गौरव गुमान है ||
करता रहा गुलामी से संग्राम तिरंगा |
स्वाधीनता का विश्व में पैगाम तिरंगा ||

केशरिया रंग चढ़ती जवानी की तरह है |
सदियों के त्याग तप की कहानी की तरह है ||
बलिवेदियों पे शीश के दानी की तरह है |
यह शौर्य की तलवार के पानी  की तरह है ||
इस रंग की अरुणाई में सूरज की कथा है |
रक्तिम जलधि की उग्र तरंगों की व्यथा है ||
भारत के स्वाभिमान का आकाश रचा है |
इस रंग ने ही देश का इतिहास रचा है ||
सम्मान का चढ़ता हुआ  पारा है तिरंगा |
बोलो न गर्व से कि हमारा है तिरंगा ||

धरती कि तरह है जो इसका रंग हरा है |
उत्साह नई क्रांति के सपनों का भरा है ||
इस रंग में उत्कर्ष के अश्वों कि त्वरा है |
यह रंग परिश्रम के ललाटों से झरा है ||
यह देश के भूगोल कि पहचान बना है |
भू देवता के त्याग का यश गन बना है ||
सम्रद्धि के स्वर इसने सभी साध रखे हैं |
इस रंग ने धरती के रंग बांध रखे हैं ||
जय हिंद का उदघोष त्रिवाचा है तिरंगा |
आतंक के गालों पे तमाचा है तिरंगा ||

जो श्वेत रंग है त्याग के पलड़े पे तुला है |
इस रंग में कुछ रंग अहिंसा का घुला है ||
यह द्वार है जो शांति के पिंजरे का खुला है |
आंसू कि धार से या पसीने से धुला है |
पानी कि तरह है मगर पानी तो नहीं है |
है वर्तमान गुजरी कहानी तो नहीं है ||
इस रंग से ही न्याय कि सत्ता अमंद है |
इस रंग से ही सत्य का रुतबा बुलंद है ||
इस्रंग को सीने में छुपाये है तिरंगा |
समझो कि शपथ सत्य कि खाए है तिरंगा ||

यह चक्र मेरे देश के दर्शन की तरह है |
विज्ञानं के वैभव के प्रदर्शन की तरह है ||
हर छन पे साँस साँस पे जीवन की तरह है |
यह चक्र जो कि चक्र सुदर्शन कि तरह है ||
इस चक्र ने धरती को विजय गान दिया है |
इस चक्र ने जड़ताओं को गतिमान किया है ||
भारत के सपूतों के लिए जान की  तरह |
यह चक्र है उगते हुए दिनमान की  तरह ||
सपनों सा अपनी आँख में पाले है तिरंगा |
इस चक्र को सीने में संभाले है तिरंगा ||

यह देश की धड़कन से जुड़ा है इसीलिए|
एहसास के आंगन से जुड़ा है इसीलिए ||
यह देश के जन-गण से जुड़ा है इसीलिए |
यह प्यार के बंधन से जुड़ा है इसीलिए ||\
शोलों में उतर जाएगी इस देश की जनता |
तूफाँ  से गुज़र जाएगी इस देश की जनता ||
जो चाहिए कर जाएगी इस देश की जनता |
इसके लिए मर जाएगी इस देश की जनता ||
भारत के कीर्तिरथ को ये रुकने नहीं देगी |
मिटके भी तिरंगे को ये झुकने नहीं देगी ||
जनता के इसी मर्म पे आघात किया है |
मुद्दा न कोई है तो तिरंगे को लिया है ||
पाएगा सियासत से क्या सम्मान तिरंगा |
जब बन गया है वोट का सामान तिरंगा ||

यह राम है रहीम है पूजा है करम है |
उम्मीद है उत्साह है मजहब है धरम है ||
तरूणाई की बाहों में फड़कता है तिरंगा |
इस देश के सीने में धड़कता है तिरंगा ||
यह देश की इज्ज़त है इसे शान से रखो |
दिल में है अगर शेष तो ईमान से रखो ||
सत्ता की चाह ले के उठाओ न तिरंगा |
अपनी बिसात पर यूँ बिछाओ न तिरंगा ||
हम सबके लिए क्या है बताओ न तिरंगा |
इस ओछी राजनीति में लाओ न तिरंगा ||
इस देश की जनता स्वयं इन्साफ करेगी |
इससे कोई गुस्ताखी नहीं माफ़ करेगी ||
हम सबके लिए जान से प्यारा है तिरंगा |
बोलो न गर्व से  कि  हमारा है तिरंगा |||

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Thursday, 8 September 2011

दोहे

जाड़े में जाड़ा नहीं, पावस में बरसात |
ऋतुओं को भी लग गयी राजनीति की वात||

कोयल बैठी नीम पर, पिय को रही पुकार |
क्या जाने इस देश फिर, लौटे नहीं बहार ||

साँसों में अनुराग के ज्यों ही महके फूल|
आँखों में उड़ने लगी, लाचारी की धूल ||

कठिन परीक्षा दी मगर, मिला नहीं परिणाम |
प्रश्न पत्र पर लिख दिया, किसी और का नाम||

सुविधाओं का अनवरत ,झरता रहा प्रताप |
उतना जल उसको मिला थी जितनी औकात ||

यह कैसा आक्रोश है ,यह कैसा उन्मेश |
घटना हो परदेश में जलता अपना देश ||

तापमान बढ़ने लगा  ,सर पर चढ़ा जुनून|
गंजे को अधिकार से मिले बड़े नाख़ून ||
बड़े बड़े तरु गिर गए , बिखर गया अभिमान |
आकर अपने बाग़ से ,चला गया तूफान ||

गठरी लेकर ज्ञान की , घूम रहे विद्वान |
नासमझों के गाँव में ,कौन करे सम्मान ||

पानी ही पानी दिखा ,कम्पित हुआ पहाड़ |
बादल ने ही जल-प्रलय ,धरती पर है बाढ़ ||

पानी ने पानी दिया ,सबका यहाँ उतार |
पानी पानी हो गए सारे पानीदार ||

दोहे

त्राही त्राही जनता करे,मौज करे हुक्काम |
फिर भी पकिस्तान को , दीख रहा संग्राम ||

दो कौड़ी का देश है , हमें रहा ललकार |
याद नहीं आती इसे , तीन बार की  मार ||

याददाश्त कमज़ोर है ,तेरी पाकिस्तान |
अपने ही दामाद को नहीं रहा पहचान ||

बोल रहे हैं अंतुले ,बिना तोल के  बोल |
अबकी बार चुनाव मैं,जनता देगी तोल ||

आँखों मैं लज्जा नहीं , बलिदानों पर क्लेश |
ऐसे मंत्री को रहा ,झेल हमारा देश ||

बलिदानों की तेरहवीं ,लगा रहे है लोग||
महापात्र इस देश के राजनीती के लोग ||  

धमकी पर धमकी चढ़ी ,वादों पर प्रतिवाद |
मर्द मौन हो सुन रहे ,हिजड़ों का संवाद ||

घर छूटा  कुर्सी गयी ,चढ़ा प्यार का भूत |
चाँद मोहम्मद बन गए ,भजनलाल क पूत||

ये तो दिल का रोग है , ले लेता है प्राण |
मंत्री पद की बात क्या, कहते है कल्याण ||

भारत कब तक रहेगा ,बन कर गौतम बुद्ध |
आखिर करना पड़ेगा आर पार का युद्ध ||








Sunday, 28 August 2011

दोहा

आँखों में लज्जा नहीं ,बलिदानों पर क्लेश |
ऐसे लोगों को रहा झेल हमारा देश ||

बलिदानों की तेरहवीं ,लगा रहे हैं भोग |
महापात्र इस में ,राजनीति के लोग ||

धमकी पर धमकी चढ़ी ,वादों  पर प्रतिवाद |
मर्द मौन हो सुन रहे ,हिजड़ो का संवाद ||

घर छूटा कुर्सी गयी ,चढ़ा प्यार का भूत|
चाँद मोहम्मद बन गये ,भजनलाल के पूत||

यह तो दिल का रोग है ,ले लेता है प्राण |
क्या कुर्सी क्या संपदा ,कहें संत कल्याण ||

विश्वासों के घाव पर लगा नहीं अवलेह |
जितनी ज्यादा प्रीति है ,उतना ही संदेह ||

मन के पंछी ने दिए ,अपने पंख पसार|
नीले नभ तक हो गया ,सपनों का विस्तार ||

सागर नदिया के लिए ,क्यों हो रहा अधीर |
नदिया में जब बह रहा ,सागर का ही नीर ||

लोहे को सोना किया ,पारस हुआ अनाम |
सोना लेकर फिर रहा ,स्वर्णकार का नाम ||

शर्मिष्ठा के रूप से फिर छल गया ययाति  |
रही देवयानी खड़ी,चकित सदा की भांति ||

जितना ही मन को दिया ,इस दुनिया ने दाह|
उतना ही बढ़ता गया ,प्राणों का उत्साह ||

थोड़ी सी बरसात में ,छोड़ गयी उद्यान |
मरुथल में किस भांति हो ,कोयल की पहचान ||

सुविधा के साम्राज्य में ,ऐसी कर की मार|
बंद हो गया आज कल ,मन वाला व्यापार||

तेरा हर व्यवहार है ,वचनों के प्रतिकूल |
कांटे दामन में भरे ,दिखलाए थे फूल||

पावक कैसे हो सके ,दीपशिखा के साथ |
सीली-सीली तीलियाँ ,गीले-गीले हाथ ||

बंद हो गये शांति के सारे पावन स्रोत |
रक्त सने कर से उड़े ,लहूलुहान कपोत ||

मर्यादाओं को मिली ,पुरखों वाली देह|
नई रौशनी पा गयी ,युग का नूतन गेह||

दागहीन चादर लिए ,प्यासा खड़ा कबीर |
किसको अवसर है ,यहाँ दे करुना का नीर  ||

वे बादल दल में बटे ,जो लाये थे नीर |
खेतों के खाते लिखी ,सूखे की जागीर ||

राजा के दरबार में मिला सभी को न्याय |
तोते को पिंजरा मिला ,मिली शेर को गाय||

बेटा लोहू से करे ,मुखिया का अभिषेक |
इतना कर्जा दे गये , बाप अंगूठा टेक ||

कैसे आंचल में भरे ,साहब का आशीष |
तन का कुरता ले चुकी ,बाबू की बख्शीश ||

मानसरोवर में लगी अब हंसों पर रोक|
बगुलों ने दावा दिया न्यायालय में ठोंक ||

सुविधा भोगी हो गये ,सारे पीर फकीर |
वायुयान में बांचते ,राजा की तक़दीर ||

शैतानों की भीड़ में ,खोये हैं इन्सान |
किसको अवसर है यहाँ ,कौन करे पहचान ||

भीषण गर्मी में दिखे पावस ऋतु के चित्र |
बादल मल कर चल दिए ,पुरवाई के इत्र ||

तपते -तपते गाल पर ,शीतल जल की बूंद |
आनंदित होती रही ,पुरवा आंखे मूंद ||

मौसम का रुख देखकर ,सारा उपवन मौन |
चुप्पी क्या रंग लायगी, इसको जाने कौन ||

            ooooooooooooooooo

Thursday, 18 August 2011

मुक्तक

हरहराती नदी की तरह तुम मिले |
एक पल में सदी की तरह तुम मिले ||
चार छन का मिलन उम्र भर की व्यथा,
इस तरह त्रासदी की तरह तुम मिले ||


अंततः हट गया आवरण आपका ,
प्रीति का छल भरा व्याकरण आपका|
दो पटरियों सरीखा रहा सर्वदा ,
लसफा आपका आचरण आपका ||


प्रेम का सत्य थे पर वृथा हो गये |
जिंदगी के हवन की पृथा हो गये |
अब सुनाएँ किसे जो लिखी आपने ,
हम अंधेरों की आदिम कथा हो गये ||


बद्लिओं सी मिली प्यास देकर गयी |
चाहतों सी मिली त्रास देकर गयी |
एक सीता जनकपुर गयी लौटकर ,
राम को फिर से वनवास देकर गयी ||

गीत

सूने सूने सम्बन्ध हुए |
घायल करुणा के छंद  हुए ||
संस्कृति का विकल पलायन है|
हर ओर स्वार्थ का वंदन है ||
कोई न मानता  है मानवता के मत को |
फिर एक विवेकानंद चाहिए भारत को ||

परमार्थ स्वयं असहाय हुआ |
अध्यात्म शुद्ध व्यवसाय हुआ ||
चिंतन में कहीं न देश यहाँ |
सुविधाओं के संदेश  यहाँ |\
दर्शन तो मात्र प्रदर्शन है |
बस सत्ता का आकर्षण है ||\
सच का अस्तित्व उदास हुआ |
आलोक तिमिर का दास हुआ ||
कोई न देखता है पीढ़ी के आगत को |
फिर एक विवेकानंद चाहिए भारत को ||

उपचार सभी उपयुक्त करे |
मानव को भय से मुक्त करे ||
आतंकों का परिहार करे |
अन्यायों का प्रतिकार करे ||
पौरुष को सच से जोड़ सके |
लिप्सा के बंधन तोड़ सके |\
हर ले संस्कृति के शोक सभी |
उन्मुक्त करे आलोक सभी ||
पाले जो अपराजेय ज्ञान वाले व्रत को |
फिर एक विवेकानंद चाहिए भारत को ||

बदले वैश्विक परिवेश सभी |
सीमाओं में हो देश सभी ||
शोषित की आत्मा जगा सके |
शोषण में पावक लगा सके ||
जो मनुज धर्म का वरण करे |
जन गण मन में संचरण करे  ||
संहार  करे हर संशय का |
जो हो प्रतीक सुर्योदय का||
 अभिव्यक्त कर सके जो भारत के अभिमत को |
फिर एक विवेकानंद चाहिए भारत को ||

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Monday, 1 August 2011

गजल

मेरे घर उनकी आमद है |
आज कहीं भी जाना रद है ||
चंद  लफ्ज़ मीठे भी बोलो |
आखिर किस मदिरा का मद है ||
सबके अपने राग अलग हैं |
मेरा घर है या संसद है ||
मज़हब तूने फर्क बताए |
यह मोहन है यह अहमद है ||
वक़्त नाप देता है सबको |
किस काया का कितना कद है ||
तू बिछुडेगा  यही  सोचकर   ,
तुझसे मिलना भी त्रासद है ||
यहाँ कोई उपदेश न देना ,
यह दिलवालों की परिषद है ||
यह मेरा दिल मेरा है पर |
यही आपका घर शायद है ||
मैं नरेश तेरा यात्री हूँ |
तू मंजिल है, तू सरहद है  ||

  

गजल

सचाई का तमाचा झूट का मन तोड़ देता है |
वो चेहरा देखता है और दर्पण तोड़ देता है ||
लहू के गर्म रिश्तों में बगावत यूँ नहीं होती |
कोई बाहर का माहिल घर का आँगन तोड़ देता है ||
परों को खीच लेती है खुले  अम्बर की आज़ादी |
परिंदा यूँ नहीं पिंज़रे  का बंधन तोड़ देता है ||
कोई दूरी बनाता है तो मन को चोट लगती है |
कोई रहता है  दिल में और जीवन तोड़ देता है ||
तड़प पूछो नहीं उनकी जिन्हें डसती है तन्हाई |
फुहारों में भिगो कर और सावन तोड़ देता है ||
मुफलिसी तोड़ देती है जवानी के हंसी सपने |
शराबी बाप खुद बचों का बचपन तोड़ देता है ||
जहां पर टूट जाती हैं ज़माने भर की शमशीरें |
उन्हीं पत्थर दिलों को एक कंगन तोड़ देता है ||
नरेश देखि चमक तो कह दिया सोना तुम्हे मैंने |
कहीं सोना कसौटी पर खरा पण छोड़ देता है ||



ग़ज़ल


नहीं काटनी थी मगर काटता है
मेरा यार मेरी डगर काटता है ||
घनी बदलियाँ हैं निगाहों में फिर भी ,
शरारों में  सारी उमर काटता है ||
कहाँ दुश्मनों की चली चाल कोई ,
गला तो ये लख्तेजिगर काटता है ||
नहीं पैरवी    हो  सकी चाहतों की , 
मुकदमा मेरा अब सफ़र काटता है ||
तेरे इस ज़ुनू  से तुझे क्या  मिलेगा ,
समन्दर की चढती लहर काटता है ||
येअय्यारियां किसलिए किसकी खातिर,
तू क्यों जिंदगी दर बदर काटता है ||
कहीं बंधकों की तरह रह न जाए |
खयालों को बस एक दर काटता है ||
इसे पड़ गई तेरे पिंजरे की  आदत |
तू क्यों इस परिंदे के पर काटता है ||
ये खुद कर चूका है उड़ानों से तौबा |
तू क्यों इस परिंदे के पर काटता है ||
निभाया है किरदार का सिद का जिसने |
तू क्यों उस परिंदे के पर काटता है ||
मैं इस जिंदगी को करूँ क्या की जिसको |
तेरे चाहतों का ज़हर काटता है ||
घनी छांव से ही अदावत है उसको |
वो दुष्यंत का गुल मोहर काटता है ||
मेरी छट पटाहट पे मुस्कान उसकी |
सितमगर ज़हर से ज़हर काटता है ||
बहुत तेज़ है धार तर्कों में उसके |
वफाओं का मेरी असर काटता है ||
नहीं उसकी खुशबू रही मेरे घर में |
 ये बेजान सा मुझको घर काटता है ||
मेरे दर्द को मेरी बेचैनियों को |
मेरी शायरी का हुनर काटता है ||
बड़ी धार है उसकी कातिल नज़र में |
ज़माने की हर बद्नज़र काटता है  ||
नरेश तेरी परवाह उसको नहीं है |
तू यादों में जिसकी उमर काटता है ||

  

Sunday, 31 July 2011

गीत



कोयल के नारे टूट गये ,सपने  बेचारे टूट गये ,
जो प्रेम गगन में  दमके  थे वे सारे तारे टूट गये |
विश्वासों  के माया मृग थे सोना मन की   नादानी   था |
जो तोड़  गये  हो   तुम   रिश्ता  वह पहले ही    बेमानी  था ||     

तन का व्यापार भले  हो पर मन का व्यापार नहीं होता |
स्वार्थों से प्रेरित शपथों में  सच का आधार नहीं होता ||
जब तक कोई कर्तव्य  नहो तब तक अधिकार नहीं होता |
अधिकार हीन संबंधों  में कुछ भी हो प्यार नहीं होता ||

मन के चौबारे टूट गए भ्रम के अंधियारे टूट गए |
संयम की तरह  बंधे थे जो नदिया के धरे टूट गए ||
आँखों से लेकर धरती तक केवल पानी ही  पानी था |
जो तोड़ गए हो तुम रिश्ता वह पहले ही बेमानी था ||

परिवर्तन पहले भी देखा ऐसा परिवर्तन दिखा नहीं |
जिसमे आराध्य बदलते हो ऐसा आराधन दिखा नहीं ||
आत्मा तक घायल कर जाए यूँ आत्म प्रदर्शन  दिखा नहीं |
वचनों में ओशो रहे मगर कर्मों में दर्शन दिखा नहीं ||

चिंतन के धरे टूट गए कुछ गीत कुंआरे टूट गए |
जो प्रणय कथाएँ लिखते थे वे साँझ संकरे टूट गए ||
खुल गई समपर्ण की  परतें यह सच भी सिर्फ कहानी था |
जो तोड़ गए  हो  तुम रिश्ता वह पहले भी बेमानी था ||

किससे और कैसा उपालंभ जिसको खुद पर विश्वास  नहीं |
किसको खोया कैसे खोया जिसको इतना आभास नहीं ||
मिल गया भले हो राजमहल लेकिन अंतर का वास नहीं |
पाया होगा आकाश बहुत लेकिन मन का मधुमास नहीं ||

संकल्प तुम्हारे टूट गए अहसास हमारे टूट गए |
मंजिल तक पहुंचे नहीं राह में घन कजरारे टूट गए ||
जो सफ़र राह में ख़त्म हुआ चिर पीड़ा के वरदानी था |
जो तोड़ गए हो तुम रिश्ता वह पहले ही  बेमानी था ||
  
      

मैं अशफाक उल्लाह बोल रहा .

जिसकी नज़रों में मान रहा बलिदानों की  परिपाटी का |
जो रहा उपासक भारत का , भारत की  पावन माटी का ||
जो अपने सीने पर दुश्मन के वार सैकड़ों झेल गया |
माता की  लाज बचने  को  जो अंगारों से खेल गया ||
भारतमाता की पूजा में मजहब का कोई तर्क  न था |
जिसकी नज़रों में   हिंदु या मुस्लिम में कोई फर्क न था ||
जिसने शहीद के रुतबे  को आगे जन्नत तक बढ़ा दिया |
मादरे वतन के क़दमों में अपने मस्तक को चढ़ा दिया ||
पंडित समझो तो  पंडित हूँ मुल्ला समझो तो मुल्ला हूँ |
भारतमाता का बेटा हूँ  हाँ मैं ही अशफाक उल्लाह हूँ ||

 
मैं  देख रहा हूँ वही वतन जिसकी खातिर कुर्बान हुआ |
जिनको आज़ाद कराया था उनकी खातिर अनजान हुआ ||
हो कहाँ भगत सिंह देखो तो यह भारतवर्ष तुम्हारा है |
आज़ाद कहाँ हो बोलो तो क्या यही   गुलिस्ताँ प्यारा है ||
ठाकुर रौशन सिंह तुम्ही कहो क्या इसी  देश पर मरते थे |
बिस्मिल क्या अपनी गजलों में इस दिन का ही दम भरते थे ||
यश पाल तुम्हारी आँखों से क्यूँ कर बरसात हो रही है |
सूरज की खातिर जूझ मरे लगता अब रात हो रही है ||
सारे ताले ही टूट गए , क्या करे अभागी चाभी का |
इस मौसम ने मातृत्व छला बलिदानी दुर्गा भाभी का ||
थी जान लुटा दी जिसके हित वह अपनी जान नहीं लगता |
जिसमे ईमान सलामत था , वह हिंदुस्तान नहीं लगता ||

 
जिस मिटटी को हमने सीचा अपने लोहू के पानी से |
जिस धरती को उर्वरा किया अपनी बेलौस  जवानी से ||
वह धरती आज लुटेरों के हाथों में बरबस चली गयी |
कमबख्त जवानी चली गयी अपनी कुर्बानी चली गयी ||
गाँधी नेहरु लोहिया कहो क्या यह आदर्श तुम्हारा था |
श्यामाप्रसाद बोलो सचमुच क्या यही विमर्श तुम्हारा था ||
नेता सुभाष आँखें खोलो देखो तो अपने भारत को |
दीमके खा रही निर्भय हो जिसकी आज़ाद इमारत को ||
जो भस्म हुई बलिवेदी पर आज़ादी की  समिधाओं को ||
मैं  अशफाक उल्लाह बुला रहा अपने उन सभी सखाओं को ||
जिसके पूजन में हवन हुए फिर से  उसका पूजन कर लें  |
 अपने प्यारे से भारत का आकर फिर से दर्शन कर  लें ||
इतना  विकास हो गया यहाँ इन्सान रहा इन्सान नहीं |
इंडिया बना डाला इसको रक्खा है हिंदुस्तान नहीं ||

 
घोटालों पर घोटालों के नित नये एटमबम फूट रहे |
यह इसी देश के हैं शायद जो इसी देश को लूट रहे ||
ईमान हो गयी है सत्ता ,पहचान हो गयी है सत्ता |
ऐसी की  तैसी भारत की भगवान्  हो गयी है सत्ता || 
सत्ता का मतलब कुर्सी है सत्ता का मतलब पैसा है |
सत्ता का मतलब रूतबा है यह जैसा चाहे वैसा है ||
जनता भी तो सहभागी है इन अपराधी बटमारों की |
इसके कारण ही गद्दी है अब तक बाकी गद्दारों की ||
भारत की मिटटी को निचोड़ सोने  की खेती करते हैं |
बेहिचक विदेशी बैंकों में  उसकी फसलों को भरते हैं ||
वैसे है ढपली अलग अलग और अलग अलग शहनाई हैं |
लेकिन  इस खाने पीने में यह सब मौसेरे भाई हैं ||
हाँ हैं थोड़े ईमानदार लेकिन वे सब आभारी हैं |
उनमें से कुछ मनमोहन हैं गिनती के अटलबिहारी हैं ||
क्या इन नेताओं की खातिर हम सबने  खून बहाया है |
क्या इनकी सुविधा की खातिर अपना सर्वस्व लुटाया है ||
है भ्रस्टाचार बढ़ा इतना जनता का कोई ध्यान नहीं |
आश्चर्य घोर आश्चर्य उठा है अभी तलक तूफ़ान नहीं ||

 
नेता तो नेता हैं लेकिन क्या इनसे कम अधिकारी हैं |
छापे तो डालो इनके घर देखो यह कितने भारी हैं ||
यस सर यस सर करते करते इनके भी वारे न्यारे हैं |
चपरासी से सिंघासन तक रिश्वत ने पाँव पसारे हैं ||
इनसे ही रूतबा बाकी है ऐयाशी और अमीरी का |
इनसे ही बढ़ा  मर्तबा  है भारत में चमचागीरी  का ||
हाँ कुछहै ईमान अभी अब भी सच्चाई जिंदा  है |
लेकिन  बहुमत  के सम्मुख वह सच्चाई भी शर्मिंदा है ||
ऐसे अफसर रहते अक्सर शासन की कुटिल समीक्षा में |
या इधर-उधर फेकें जाते या है फिर बाध्य प्रतीक्षा में ||
क्या इन्हीं अमीरों की खातिर तूफानों  से टकराए थे |
इनकी आज़ादी के खातिर क्या प्राण गवाए थे ||
जो हाथ बंधे थे शपथों में वे हाथ अचानक छूट   गए |
इस भ्रष्ट तंत्र के हाथों से बलिदानी सपने टूट गए ||

 
इनको भी पीछे छोड़  दिया घर में घर वाले चोरों ने |
कर दिया खोखला पीढ़ी को बेखौफ मिलावट खोरों ने ||
यह अपराधी हैं बहुत बड़े , यह लाशों  के व्यापारी हैं |
यह धन के लोलुप चौराहों पर फाँसी के अधिकारी हैं ||\
कुछ लोग यहाँ हैं भारत की रक्षा से सेंध लगाते हैं |
भारत के ख़ुफ़िया राज़ शत्रु के क़दमों तक पहुंचाते हैं ||
आतंक वादियों को घर में ये ही गद्दार बुलाते हैं |
 है यही कि जो निर्दोषों की लाशों पर लाश बिछाते हैं ||
इन गद्दारों ने पैसे पर ईमान बेच डाला  अपना |
 धनवान बने पर कौड़ी में भगवान बेच डाला अपना ||
इनके कारण अपना भारत आतंक वाद को झेल रहा |
इनके कारण ही बचपन तक बम बन्दूकों से खेल रहा ||
 क्या सोचा था अशफाक उल्लाह यह कैसा देश हो गया है |
जो चाहा था उससे बिलकुल उल्टा परिवेश हो गया है ||

 
जब फिर से झंझावातों का इस भारत में नर्तन होगा |
जब फिर से विप्लव दहकेगा जब फिर से नया हवन होगा ||
जब फिर से चढ़ी जवानी का गिरि सागर तक गर्जन होगा |
तब भ्रष्ट व्यवस्था टूटेगी तब कोई परिवर्तन होगा ||
जब वर्तमान की अंगड़ाई अपने अतीत में झांकेगी |
जब लुटी पिटी जनता अपने दोनों हाथों को ताकेगी ||
जब चौराहों पर अपराधी कारों से घसीटे जाएंगे |
जब भ्रष्टाचारी अपने ही कमरों में पीटे जाएंगे ||
जब गद्दारों को सरेआम फाँसी पे टांगा जाएगा |
नेताओं से सारा हिसाब सड़कों पर माँगा जाएगा ||
निर्बल जनता आक्रामक हो जब तोड़ेगी शहज़ोरों को |
जब सही सजा दी जाएगी इन क्रूर मिलावट खोरों को |\
जब दमन कारियों का जनता के द्वारा मित्र दमन होगा |
तब जाकर मेरे भारत में सचमुच का परिवर्तन होगा ||
अन्यथा हमारा हर सपना अरमान हमारा व्यर्थ गया |
मैं अशफाक उल्लाह बोल रहा बलिदान हमारा व्यर्थ गया ||
     -----------------जय हिंद -----------------------

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Saturday, 30 July 2011

मुक्तक

अपने भीतर प्रकाश कर लेगा ,
 स्वर्ग में भी प्रवास कर लेगा |
प्यार की नाव  से तेरा दिल भी , 
साहिलों की तलाश कर लेगा ||

देख यमुना के पास   है अब भी 
उसको तेरी तलाश है अब भी |
तू भटकता  कहाँ है मन मोहन   ,
  तेरी राधा उदास है अब भी ||  

 दिल से दिल का वरण करे कोई , 
प्रीति का संवरण  करे कोई | 
वक्त के लाख लाख पहरों से ,
 रुक्मिणी का हरण करे कोई || 

 स्वप्न बूंदों में ढल गये  होंगे ,
 कितने मौसम बदल गये  होंगे |
 यों नहीं  भूमि को मिली गंगा ,
 कितने पर्वत पिघल गए होंगे ||