Friday 26 December 2014

लव  का रोष
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सघन संताप में दहकर  हुईं  भूमिष्ठ वैदेही।
असह चिर वेदना सहकर हुईं भूमिष्ठ वैदेही।।
बिलख कर रह गए लव-कुश ,तड़प कर रह गए राघव।
नहीं अब तक सहा था ,आज वह भी सह गए राघव।।
खड़ी  व्याकुल सभी माएँ ,व्यथित परिजन हुए सारे।
अवध में मच गया कुहराम , आकुल जन हुए सारे।।
 सुतों को देख कर सम्मुख , विकल राघव बढे आगे।
पिता की देख विह्वलता कदम दो लव बढे आगे ।।
ह्रदय में फट रहे थे , रोष के आक्रोश के गोले।
ठिठक कर लव अवधपति से , तनिक आक्रोश में बोले।।
कहा लव ने अवध के राज राजेश्वर ठहर जाओ।
ओ दिनकर वंश के आलोकमय दिनकर ठहर जाओ।।
हमें इन प्रेम विह्वल बाहुओं में ले सकोगे तुम।
हमारे कुछ सवालों के , जो उत्तर दे सकोगे तुम।।
जाली है आज सच की अस्मिता जलते उजालों में।
अवधपति घिर गए हो आज बनवासी सवालों में।।
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं  कहना।
अगर भगवन हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना।।

अगर पति हो , पिता हो ,याकि राजा हो तो उत्तर दो।
तुम्हारी न्यायनिष्ठा का तकाज़ा हो तो उत्तर दो।।
सुना है आप जग में एक , मर्यादा की मूरत हो।
सुना है ज्ञान की और प्रेम की अविभाज्य सूरत हो।।
तुम्हारे वास्ते ही , सुखों का आकाश छोड़ा था।
लिया बनवास पतिव्रत धर्म पर रनिवास छोड़ा था।।
हज़ारों दुःख सहे पर आपको अविकल नहीं छोड़ा।
रहीं लंका में लेकिन प्रीती का सम्बल नहीं छोड़ा।।
परीक्षा अग्नि की ली आपने किसको दिखाने को।
बताना चाहते थे आप शायद इस ज़माने को।।
अपावन पात्र को अपने ह्रदय से वार नहीं सकते।
ये रघुवंशी किसी पर यूँ भरोसा कर नहीं सकते।।
परीक्षा वह भी माता ने चिता पर बैठ कर दी थी।
तुम्हारे प्रति समर्पण में बताओ क्या कमी की थी।।
कोई भी अंश कालिख का कहीं लगने न पाया था।
मेरी माता ने अपना धर्म हंस हंसकर निभाया था।।
हिमालय त्याग का लेकिन खड़ा था चाह के पीछे।
उन्हें छोड़ा गया राजन महज़ अफवाह के पीछे।।
ठगा विश्वास राघव बोलिए तो किस हताशा में।
सचाई को मिला बनवास किस यश की पिपाशा में।।
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना।
अगर भगवन हो तुम तो , हमें कुछ भी नहीं कहना।।

तुम्हारे वंश की विरुदावली  में ढल रहे थे हम।
तुम्हारे अंश थे माँ के उदर  में पल रहे थे हम।।
नहीं सोचा कि ऐसे में कहाँ जाएगी मेरी माँ।
भयानक जंगलों में कैसे रह पायेगी मेरी माँ।।
नहीं सोचा क़ि पीड़ा का कलश इक रोज फूटेगा।
मेरी माता के भी माता - पिता पर वज्र टूटेगा।।
सत्य का सिंह मृगछौना हुआ सम्राट के आगे।
तुम्हारा पति बहुत बौना हुआ सम्राट के आगे।।
सात जन्मों का बंधन तोड़ देना ही उचित समझा।
मेरी माँ  को अकेला छोड़ देना ही उचित समझा।।
नहीं हम जान पाये आज तक यह आप कैसे हैं
अभागा कर दिया बच्चों को अपने , बाप कैसे हैं
आपके प्यार के पंछी ने भी उड़कर नहीं देखा
हमारा हल क्या है आपने मुड़कर नहीं देखा
भुजाएं खोलकर आते हो सीने से लगाने को
हमें स्वीकार करने को हमें अपना बनाने को
हमारी माँ को ले डूबा ये कैसा प्यार है राजन ?
सुतों पर आपका अब कौन सा अधिकार है राजन ?
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवन हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना

हमें मालूम है विरहाग्नि में खुद भी दहे होंगे
तुम्हारे नेत्रों से अश्रु के झरने बहे होंगे
कभी भी चैन इक पल को नहीं , तुमको मिला होगा
ये आभायुक्त मुख मंडल न फूलों सा खिला होगा
गहनतम पीर के आंसू वो पश्चाताप के आंसू
मगर बेकार ही सारे गए हैं आप के आंसू
बड़े सम्राट पर हो अकिंचन दे नहीं सकते
पुनः हमको हमारा बीता बचपन दे नहीं सकते
हमें पाला है कुटियों ने , हमें पाला है जंगल ने
हमें पाला  है ऋषियों ने , बचाया माँ के आँचल ने
बहुत मजबूर होंगे आप ,हम मजबूर कैसे हों
हम अपने पालने वालों से राजन दूर कैसे हों ?
नहीं माता रहीं तो सर पे ऋषि का हाथ बाकी है
हमारे साथ में बनवासियों का साथ बाकी है
हमारी दाढ़ियाँ माँ के विरह को सह न पाती थीं
मगर सम्राट के आगे विवश  थीं , कह न पातीं थीं
मेरे पितृव्य तीनो ,आपकी आज्ञा से हारे थे
एक सम्राट के आगे सभी अनुचर बिचारे थे
कुलगुरु और सचिव सब आपकी निष्ठां में पलते  हैं
सभी धर्माधिकारी आपके अनुसार चलते हैं
ये कैसा युद्ध जिसमें एक भी मस्तक नहीं फूटा
यहां दरबार में आक्रोश का स्वर तक नहीं फूटा
जिया जो माँ  ने वह संतोष ,सीने में लिए हैं हम
यहां का पददलित आक्रोश सीने में लिए हैं हम
हमारे वक्ष में तूफ़ान है कैसे निकालोगे
अवध के नाथ इस आक्रोश को कैसे सम्हालोगे ?
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना

यज्ञ हयमेघ जो संकल्प कर तुमने रचाया है
यहां आसन पे माँ  की स्वर्णप्रतिमा को बिठाया है
तुम्हारे ज्ञान ने ही फिर तुम्हें सिखला दिया होगा
वो सोने के हिरन का आपने बदला दिया होगा
वहां अन्याय है यदि न्याय में होती बहुत देरी
लो देखो यज्ञ की पूर्णाहुती में माँ गयी मेरी
पिता हैं राम मेरे मेरी माता ने बताया था
हमारे मन में भी बहुधा ये सुन्दर स्वप्न आया था
पिता से प्यार करना ,और पिता की गोद  में रहना
पिता से तोतली भाषा में अपने चित्त की कहना
मगर इन जागते सपनों का बोझा सह नहीं पाया
इन आँखों में कोई सपना , बहुत दिन रह नहीं पाया
हैं अपने दर्द में बहते उसी धारा में बहने दो
अब इन बनवासियों पर राजवंशी प्यार रहने दो
हमारी माँ  ने दुःख झेले मगर कुछ कह नहीं पाया
भार इतनी परीक्षाओं का लेकिन सह नहीं पाया
यहां फिर से परीक्षा अग्नि वाली दी नहीं माँ  ने
जो गलती कर चुकीं थीं और गलती की नहीं माँ ने
चढ़े निशि दिन कसौटी पर जहां सम्मान नारी का
तनिक अफवाह पर होता जहां अपमान नारी का
वहां यदि माँ हमारी , रंगमहलों में चली जाती
अगर अपने पती के संग महलों में चली जाती
तो नारी जाति के मस्तक पे कालिख लग गयी होती
खुली फाँसी  पे नारी अस्मिता ही टंग गयी होती
किया उत्सर्ग खुद का , मान नारी का बढ़ाया है
तिलक नारीत्व के मस्तक पे माता ने लगाया है
धारा में पैठ कर माँ ने बचाया मान नारी का
पुरुष के सामने रक्खा सहज सम्मान नारी का
असह पीड़ा ह्रदय में , किन्तु यह मस्तक तना तो है
मेरा जीवन उसी माता के जीवन से बना तो है
नहीं जो कर सका कोई , किया है अम्ब सीता ने
ये उत्तर सारी दुनिया को दिया है अम्ब सीता ने
कि नारी पुरुष को जनती तो है पर जानती भी है
उसे अपना सभी कुछ हाँ सभी कुछ मानती भी है
मगर स्त्रीत्व पर जब भी कुठाराघात होता है
कुलिश पल भर में तो कोमल सरल जलजात होता है
सजा दी आपने माँ  को सजा वह सह गयी  राजन
पतिव्रत धर्म वाले पींजरे में रह गयी राजन
दिया दंड माँ  ने वह तुम्हें प्रतिपल रुलायेगा
तुम्हें शिव का धनुष टूटा हुआ हर पल सताएगा
हुआ है और न होगा ,ऐसा पति श्रीराम से पहले
सिया का नाम आएगा तुम्हारे नाम से पहले
बताओ किस तरह हम माँ  का आँचल छोड़ दें राघव
जहां बचपन गुजारा है वो जंगल छोड़ दें राघव
हमारे शब्द घायल हैं ,दहकती पीर जैसे हैं
क्षमा करना हमारे प्रश्न तीखे तीर जैसे हैं
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
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Wednesday 16 April 2014



शपथ पत्र

कविता मेरे लिए सब कुछ है ! आज तक जो भी पाया कविता से पाया ,जो भी खोया उसके पीछे भी कविता का ही हाथ था !एक धनहीन परिवार से अपनी पहचान कविता के सहारे बनाने निकला था !पैसा तो नहीं मिला देश - विदेश में पहचान जरूर बन गयी ! अभावों और संघर्षों से लड़ने की ताक़त कविता ने ही दी ! निराशा और अवसाद के गहन क्षणों में कविता नर टूटने नहीं दिया !मैं जीवन की अंतिम श्वांस तक कविता का ऋणी रहूँगा !
इसी कृतग्यता की अभिव्यक्ति स्वरूप डॉ उर्मिलेश और कैलाश गौतम की मंत्रणा से वर्ष -२००५ में मैनें अखिल भारतीय मंचीय कवि पीठ की लखनऊ में स्थापना की !हिन्दी कविता की वाचिक परम्परा को स्थापित करने के प्रयोजन से कई राष्ट्रीय - अंतर राष्ट्रीय आयोजन किये ! देश विदेश से आमंत्रित कवियों , हिन्दी सेवकों का सम्मान किया ! हर समारोह में उपलब्धि नामक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन भी कर रहा हूँ !
   निष्कर्ष यह की कविता मेरे लिए श्रद्धा है ,पूजा है और जिन्दगी भी ! हज़ारों कविसम्मेलनों में काव्य पाठ  संयोजन और संचालन किया और कर रहा हूँ !इन बड़े समारोहों के कारण नई पीढ़ी के रचनाकार मुझे कवि  के स्थान पर केवल संयोजक समझने लगे !मेरे लिए एक विचित्र स्थिति बन गई ! मैं सदैव छंद बद्ध कविता का हामी रहा हूँ !लम्बी कवितायें ,गीत ,छंद ,मुक्तक ,दोहे सभी कुछ खूब लिखा !तमाम पात्र - पत्रिकाओं में छपा भी !किन्तु मेरी एक कमी है जिसे मैं स्वीकार करता हूँ ,प्रकाशन के लिए रचनाएं भेजने में आलसी रहा हूँ !
    कविता ह्रदय की वास्तु है केवल मष्तिष्क की नहीं !छंद में सभी कुछ कहा जा सकता है ! इधर कविता में तमाम तरह के आंदोलन चले !नई कविता के अलंबरदारों ने छंद मुक्त कविता को ही कविता मान सम्पूर्ण  छांदिक परम्परा को ही खारिज कर दिया !यह एक भयावह स्थिति थी !नई कविता के नाम पर अपठनीय और उलझाऊ गद्य का सृजन कियाजाने लगा !मानता हूँ कविता का का यह पश्चिमी संस्करण कविता भी हो सकता है ,यदि उसमें तरलता ,संवेदनशीलता और सहज बोधगम्यता हो !
    कबूतर अब नहीं रोता मुक्त छंद कविताओं का यह संग्रह आपको सौंपते हुए मेरा निवेदन है कि आप इसकी भाव गंगा की गहराई तक अवश्य उतरेंगे !
     कुछ कविताओं को छोड़ दें तो संग्रह की शेष सभी कवितायें स्वानुभूत प्रेम की अभिव्यक्ति हैं !संभव है कि यह निजी पीड़ा और आनंद की  अनुभूतियाँ आपको अपनी लगें !मैंने अपना काम कर दिया है अब बाक़ी काम आपका है !अभी आपसे बहुत कुछ कहना है !अगली पुस्तकों में यह संवाद चलेगा !
    मेरी अर्धांगिनी पुष्पा जो स्वयं एक अच्छी कवयित्री हैं ,वे इस संग्रह के मूल में हैं !मेरे बच्चे - राजेश , दिव्या , काव्या सभी का योगदान किसी न किसी रूप में इस संग्रह की कवितायें लिखने से लेकर छपने तक रहा है!
        सुप्रसिद्ध उपन्यासकार मेरे अग्रज श्रद्धेय सुधीर निगम [कानपुर ] का प्रोत्साहन प्रियवर पवन बाथम और वनज कुमार 'वनज ''[जयपुर ]की आत्मीयता और सहयोग ने इसे पुस्तक का आकार देने में महत्व पूर्ण भूमिका अदा की है !
       अंत में पूरी आश्वस्ति के साथ आपकी स्वीकारोक्ति के निमित्त "कबूतर अब नहीं रोता " कविता संग्रह आपको हस्तगत कराता हुआ आपसे त्रुटियों की क्षमा के साथ अतिरिक्त स्नेह की कामना करता हूँ !

                                                                                                         डॉ नरेश कात्यायन
                                                                                                            लखनऊ 


आतंक 

महकती बारूद /टूटते तारे 
गगन की कंदराओं से सभाओं में 
बिखर जाता रोशनी का रक्त 
जर्जर हो गया है आदमी 
मौत के पहरे जडे  हैं टाइलों से
मिट्टी में सना आतंक 
कोठियां / घर झांकते दिखते 
झरोखों / खिड़कियों से 
धूप मानों राइफल की नाल 
सुबह का अखबार 
हमने रात भर की ज़िंदगी जी ली !


खेत / दफ्तर / मिल / दुकानें ,दिन 
शाम फिर होगी न होगी 
सीरियल या फिल्म /टीवी घर रहेगा 
खेत का श्मशान /भीड़ नगरों की 
कहाँ मुंह फाड़ दे बन्दूक 
रेंगता चौबीस घंटे वक्ष पर 
हड्डियों का एक पंजा 
और हम 
बात करते ,गुनगुनाते ,फाइलें पढ़ते 
मशीनें या हल चलाते 
दब गया स्कूल जाता छात्र 
ट्रक के सामने आकर 
बर्बर हो गया है आदमी !


पारदर्शी बंद कमरा 
देखते हम 
कोई गोली खिड़कियों का कांच तोड़े 
मेज के नीचे दुबककर 
फर्श पर गिरकर 
फिर सुरक्षित इसी कुर्सी पर जड़े  होंगे
एक गोली की त्वरा का भ्रम 
ज़िदगी का दे रहा अहसास 
हम जीते रहेेगे !


राजपथ ठीक बीचों बीच 
अचानक आ खड़ी है कार 
खिड़कियों से झांकता नीला अन्धेरा 
सामने का कांच भी काला 
राम जाने किस तरफ की 
झक्क से खिड़की खुलेगी !


अभी तक लौटा नहीं बेबी 
बज गए हैं पांच 
सिर्फ साढ़े चार तक स्कूल 
दस मिनट का रास्ता 
कहाँ रिक्शा फंस गया 
घनघनाकर  बज उठा है फोन 
बढ़ गयी धड़कन 
रिसीवर हाथ में है
गेट पर घंटी बजी रिक्शा रुका  
दौड़कर आता हुआ बेबी 
बच गया फिर एक भीषण  हादसा !


फिर गयी बत्ती शहर की 
ट्रांसफार्मर जल गया या तार काटे हैं किसी ने 
जल न पाई मोमबत्ती 
कांपते हैं हाथ 
घड़ी की टिक - टिक 
तोड़ती निर्जीव सन्नाटा 
बढ़ रहीं हैं धड़कनें /साँसें 
जाने किस तरफ हो धाँय 
बंद आँखे देखतीं यमदूत 
कंठ में फंसने लगा हनुमान चालीसा 
झलझलाकर आ गई लाइट 
राइफल ताने पलंग के पास
कोई था यहां पर 
अब कहाँ है ?
बंद करके स्वीच हम सोये 
आजकल हम भी भुलक्कड़ हो गए हैं ! 


हम सब संस्कारी हैं

खान लड़ता है आदमी ?
लड़तीं हैं कुटिल मानसिकताएं
खून और बारूद से जिनके नाम के विज्ञापन
लिखे होते हैं दुश्मनों की छाती पर
कहाँ लड़ते हैं देश ?
राज भवनों पर लगे ध्वज
केवल फहरते हैं लड़ते नहीं
तोपें /मशीन गनें /बंदूकें
जंग भले लग जाय
लोहा मिट्टी बनता है तो बन जाय
कभी लड़े हैं आज तक ?
लड़ती हैं आवाज़ें
कठपुतलियों की तरह नाचती हुई
सिपाही भी कहाँ लड़ते हैं ?
उनके जेहन में घुस जाती हैं ये आवाज़ें
अपने - अपने सिंहांसन  की छतरी थामें
लिप्साओं के हवन कुण्ड में
आहुतियां देती हैं ये आवाज़ें
ॐ युद्धाय नमः !
ॐ महाकालाय नमः !
ॐ विनाशाय नमः !
साकिल्य बनते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी मनुष्य
हरी - भरी धरती
निर्मल नदियां /झरने /पहाड़
सुख और शान्ति जैसे द्रव्य
मान्सिक्ताएं भी लड़ती कहाँ ?
हवन करती हैं
हवन करना पावन संस्कार है
सनातन संस्कृति का
हम सब संस्कारी हैं !


बेरोजगार यमदूत 

घायल यमदूत को उठा ले गए 
साथी यमदूत
 भीड़ भरी सड़कों पर 
कार की चपेट में आ गया 
नहीं मालूम थे यातायात के कायदे 
मालूम भी होते तो कौन मानता 
जिसकी तलाश में यमपुरी से आये थे 
शहर के किसी मोहल्ले /गली /फ्लैट में 
नहीं मिला वह 
गिनती भी तो नहीं जानते यमदूत 
सेक्टर /फेज /गली/ हाउस नंबर 
कैसे पढ़ पाते 
सड़क पर भटकते तो कहाँ तक 
बुलेटप्रूफ कारों में घुस नहीं पाये 
केवल तस्वीर लेकर तलाशते रहे 
इसी भागमभाग में एक यमदूत 
आ ही गया कार की चपेट में 
यमराज माथा ठोंकते रह गए 
उनके डिपार्टमेंट की ज़िम्मेदारी 
निभाने लगे बुलेटप्रूफ कारों वाले 
बेरोजगार होने लगी यमपुरी 
स्वर्ग की रियासत जस की तस 
पता नहीं स्वर्ग के काम काज 
अपने हाथ में लेगा भी आदमी ?  



अब कहीं ख़तरा नहीं है

बुद्ध ने भी पा लिया निर्वाण 
पीचुका विष शान्ति का सुकरात 
क्रास पर लटक चुका ईशा 
गोलियां खा चुका गांधी/ सत्य की पैरवी में 
शून्य में खोया विवेकानंद 
जल समाधि ले चुके राम 
बहेलिये के तीर की भेंट चढ़ गए कृष्ण 
महावीर के पांचो तत्व 
विलय हो गये अपने - अपने कोष में 
यह सभी बहुत डराते थे तुम्हें 
उसके डर से जिसे किसी ने नहीं देखा 
नाकामयाब हो गए इनके उपदेश 
तुहारे ज़ेहन में कौंधती 
हिंसा की तकरीरें जीत गईं !
अपने आका काली कमली ओढ़ कर सो गए 
नानक ,दादू और कबीर मौन हो गए 
निर्जीव नाम बचे हैं केवल 
तुम्हारी मानसिकता का पहरेदार 
कोई नहीं बचा 
अब किसका और कैसा भय ?
गीता / रामायण / क़ुरआन /बाइबिल और गुरुग्रन्थ 
मखमली वस्त्रों में आवृत 
बन गए हैं रहल की शोभा 
यह किसी को कैसे डरा सकते हैं 
तुम्हारा अशेष अहंकार बुलंदियां पा गया !
तुमने अपनी हथेलियों पर 
उगा लिए कंटीले बबूल 
इतने बढ़ा लिए नाखून 
पलकों पर लगा ली नंग्फनी की बाड़ 
तुम अपना मुँह भी नहीं धो सकते 
नींद नागफ़नियों में उलझ गई 
पांवों में बारूद की चट्टाने बांधकर 
किस उत्कर्ष की और चलोगे ?
तुम्हारे होंठों पर लगा है तुम्हारा ही लहू 
भीतर भूख से छटपटाता भेड़िया 
इंसानी गोश्त की भूख 
यह तुम्हीं हो अकेले मेरे भाई 
दूसरा कोई नहीं 
बच सकते हो तो बचो 
अपनी हथेलियों /नाखूनों /पलकों और 
अपने भीतर भूख से छटपटाते 
खूँख्वार भेड़िये से 
पावों में बंधी चट्टानों से 
वरना बाहर कहीं ख़तरा नहीं है !

Tuesday 15 April 2014

आग खुद लगी है

प्रेम का हिरन
दौड़े तो कौन करे मुकाबला
बल्लियों उछल जाए
सागर के ज्वार की तरह
तनिक आहट पर भी चौंकता
इतरा-इतरा कर भागे
सारे वन को बपौती मान
यह कस्तूरी मृग नहीं है फिर भी
बैठने नहीं देती कस्तूरी की महक
अन्धा भी है यह
सितार की धुन में मस्त
वीणा के तारों में बिंधा
बांसुरी की पुकार से सम्मोहित
भूल जाता है देखना ,सुनना ,सोचना
बाघ हमला करे या भेड़िया
 वैराग की खिल्ली उड़ाती प्रेम की साधना
हतभाग्य प्रीति का सारंग
एक -एक रंग को मादकता में घोल
पोर - पोर आशक्ति में डूबा
भूल जाता है कि यहीं कहीं पर
सधी हुई स्वर लहरी वाले
सधी हुयी दृष्टि और सधे  हुए लक्ष्य वाले
शिकारी के सधे हुए हाथों के तीखे तीरों से
एक निष्क्रिय युद्ध चेतना में
मोहनिद्रा के वशीभूत
करता है मृत्यु का वरण
मर जाता है जब प्रेम का हिरन
तब उठता है जंगल में तूफ़ान
हिंसक शोर
असंतुष्ट कोलाहल
आग की ऊंची - ऊंची लपटें
हिरन के शोक में अग्नि समाधि लेता वन
हर तरफ फैलती एक सूचना
यह आग खुद लगी है !  
अर्चना

अर्चना किस देवता की
वह कि  जो पाषाण और निष्प्राण
बैठा मंदिरों की गोद में
जिसको नहीं अनुभूति कोई
देहरी पर सर पटककर लौट आईं
व्यथित आकुल और निराश्रित प्रार्थनाएँ
एक भी हँसता हुआ पाटल किसी की कामना को
दे नहीं पाया
मानवों की भीरुता जिसका सहारा
रमा कण -कण में जगत के
कथ्य में अभिव्यंजना जिसकी
जो विचारों में मुखर है
आस्था की पालकी में चिर विराजित
भावना के पुष्प केवल चाहता है !
किन्तु यह सौंदर्य मंडित गात किसकी अर्चना है ?
सचल आद्रिल प्राण वाली भव्य प्रतिमा
श्वास में जिसके अगोचर लोक
युग भुजाएं हार मूँगे के
नेत्रों के प्रखर आशा दीप
प्रीति के दोहे सरीखे होठ
श्वास गंधित धूप चन्दन युक्त
अर्चना का यह विशद ऐश्वर्य
कौन है वह भाग्यशाली देव ?
कौन है वह देवगृह ?
जो यह समर्पण कर वरण हो जाएगा कृतकृत्य
कामना नृत्य होगा किस निलय में ?
अर्चना के पुष्प जो धारण करेगा
वह कोई इंसान होगा
और वह इंसान तुम हो !
वह क्षण


वह क्रमिक सौंदर्य का उत्सर्ग
आ गया जब स्वर्ग धरती पर
प्रथम तो झुकते हुए दो नैन देखते यूँ कनखियों से
लाज ज्यों उन्माद के भुजपाश में हो
चाहती हो मुक्ति पर उन्माद का कहना न टाले
एक गहरी मदिर सी मुस्कान अधरों पर
कि जैसे बस गयी हो तुम
मेरी उद्यान वाली झोपड़ी में सहम करके
इस तरह देखा तुम्हें मैंने
कि जैसे हथकड़ी पहने कोई तैराक देखे
बाढ़ वाली सिंधु सी विस्तृत नदी को
हो गया क्षण एक में पक्षी हमारा मन
उड़े फिर - फिर तुम्हें छूता चहकता निस्सीम नभ में
ज्यों उड़े पछुआ हवा के गर्म झोंकों में
सितारों से जड़ी फर -फर तुम्हारी चूनरी
बन गयीं सौंदर्य का प्रतिमान तुम !
कामना का कोई शिल्पी
वासना की छेनियों से
कर रहा हो कल्पना अनुरूप
मन के चक्षुओं में
एक पत्थर को सुघर प्रतिमा बनाने की क्रिया
छत रही वह मूर्ति उतना बढ़ रहा सौंदर्य
वह क्षणिक निर्माण भी कितना बड़ा था
एक पल पीछे
तुहारी सहज आकृति
स्वर्ग के सौंदर्य से सुन्दर हुई !
और जब तुमने उठाये नैन
कुछ नशीले कुछ लजीले कुछ गुलाबी
अप्रकाशित वह अनूठा काव्य
जिसका प्रथम पाठक
छंद से नव छंद फिर अध्याय से अध्याय
पढ़ रहा अनुक्षण स्वयं में खो रहा था !
प्रिय तुम्हारे कर्णफूलों से
धरा पर हैं चमकते स्वप्न कुछ
वक्ष पर स्कंध से उतरे हुए कछ केश
उनकी भांति ही अस्थिर हमारी दृष्टि !
सोचता हूँ तुम अगर बिंदी लगातीं
बहुत अंन्याय होता
क्योंकि उस स्थान का स्पर्श
दो कोमल गुलाबी पंखुरी करतीं चहककर
और खुद निर्माण हो जाता
लजीली बिंदियों का !
यह कपोलों पर ढरक आईं लकीरें
ज्यों किसी छवि पटलिका पर
नापते सौंदर्य मन्मथ ने निसान लगा दिए हों !
तुम न बोलीं मैं न बोला एक क्षण बस
और फिर तुम दूर कोसों दूर
हाथ में सिंदूर लेकर मैं खड़ा
लोग कहते हैं समय फिर लौटता है
लौट आये फिर कहीं शायद पुराना क्षण !  
प्रेम दिवस पर

शायद तुम्हें बुरा लगा हो
एक गुलाब का फूल भी नहीं दे सका
प्रेम - दिवस पर
मेरा मौन - मौन रहना
मैं तुम्हें बहुत - बहुत प्यार करता हूँ
नहीं कह पाया मेरा संकोच
टूट गई तुम्हारी प्रतीक्षा
बहुत खला होगा मेरा व्यवहार
कुछ और दरक गया हो!
तुम्हारी सौगंध
मेरा कुछ भी नहीं है मेरे पास
वह मन भी नहीं
जो बहुत चाहता है तुम्हें
मेरा अहंकार भी नहीं
जो पुरुषोचित था
तुमसे अलग सोचने वाली सोच
कुछ भी बचा नहीं मेरे पास !
एकाकार हो चुकी है दो दीपकों की लौ
एक और एक मिलकर एक हो चुके हम
इस हाल में
क्या कहता तुमसे ? किसे देता गुलाब ?
तुम्हें सौंप चुका हूँ
कभी न मुरझाने वाला गुलाब
देखो नाराज़ मत होना
तुम्हारे रूठने या टूटने से
टूट जाएंगे हम !
        
प्रतिबिम्ब

तनिक अनुभूति से दो - चार हो लो
उतारो
औपचारिकता सने झूठे मुखौटे
तुम्हारे सामने
कदभर तुम्हारे
उघारो ज़रा सी पलकें
विलोको
प्रीति का दर्पण खड़ा है
सत्य से आँखें मिलाकर
स्वयं को मथकर
बात करने का नहीं अभ्यास तुमको
क्षम्य है
पर यह मुखौटा तो उतारो
बात करलो स्वयं से भी एक क्षण
मीत यह दर्पण तुम्हें
स्वीकार कर लेगा किसी भी रूप में
स्वयं का प्रतिबिम्ब देखो तो !
विवशता

बहुत लंबी प्रतीक्षा
किस लिए ? किसकी ?
करेगा कौन इस क्षण की समीक्षा
तुम्हें मालूम भी है यह प्रतीक्षा
कोई परिणाम है वश में किसी के
फूल का खिलना
किसी आश्चर्य का मिलना
ये कोई और ही है
हाथ में जिसके सभी कुछ
प्रकट होता है कभी प्रत्यक्ष
यह भ्रमों की यात्रा अनुक्षण
तिरोहित कर रही है
सुखद आशा के कंगूरे
चुभ गए कांटे
भावना के सुघर पांवों में
शून्यता का दृष्टि में आतंक
धड़कनों में भर गया नीला धुंआ
व्यर्थ ही कुंठा न पालो
विवशता यह तुम्हारी है रची तुमने
पसारो स्नेह का आँचल मिला जो भी
संभालो !


रूपसि

प्रेयसि ! तुम्हें क्यों लग रहा
कि तुम सुन्दर नहीं हो
तुम्हारी स्थूल काया
तुम्हारा सांवला रंग
तुम्हारी चाहतों के मार्ग में बाधा
बैरी हैं तुम्हारे स्वप्न के
तुम्हे शायद नहीं मालूम
दर्पण हो गई हो
प्यार की अभिनव परीक्षा ले रहा
एक भी तो रूप का लोभी
प्रेम का छलिया रसिक अलि
पास तक आया नहीं अब तक तुम्हारे
स्वार्थ की परतें चढ़ाये
वासना का क्षणिक पाठक
और यदि आ भी गया तो
जान लोगी एक क्षण में
करेगा जो प्यार तुमको
वह ह्रदय से ही करेगा
क्योंकि तुममे वह सभी कुछ है
जो नहीं होता सभी में
तुम्हें क्यों लग रहा रूपसि
कि तुम सुन्दर नहीं हो !



आयु

बात बेबात हंसना खिलखिलाना
घूमना भौतिक विचारों में
तुम्हारी आयु पर क्या यह गणित
उपयुक्त होगा
अभी तुम हो बहुत छोटी
कहाँ तुमने छुई हैं उम्र की ऊंचाइयां
छुई  - मुई
जहां अभिव्यक्ति देता है ह्रदय
शब्दों के प्रयास से बहुत ज़्यादा
गीत /बांसुरी /श्वास सारे ही
उतरकर भावना को शक्ति देते हैं
स्निग्ध भोलापन तुम्हारा
हरसिँगारी हँसी से अब भी जुड़ा है
उड़ा है प्रीति  के निस्सीम नभ में
तुम्हारी आस का नन्हा अबाबील
इसकी थकान को सम्बल देना
गति करना विरामहीन
केवल इस लिए बस
एक छोटी उम्र हो तुम
उम्र ही नहीं कुछ और प्रतीकों से आगे
और बढ़ना है तुम्हें
यह विश्व ही काफी नहीं है
किसी के दर्द का इतिहास पढ़ना है ! 

Monday 14 April 2014




परिचिता

तुम्हारी आँख से मुस्कान ने
जब यात्रा अपनी
अधर पर स्थगित कर दी
बताओ किसलिए फिर
एक छोटी सी सचाई
एक लघुतम हंसी के आलोक को
अयाचित या पूर्व दंशित भाव लाकर
रौंदती हो बल लगाकर
अजन्मी प्रीति की ले कुंडली कर में
समय का यह बृहस्पति
तुम्हारी वह क्षणिक मुस्कान
अभिनय से जिसे झुठला रही तुम
उसे स्पष्ट करना चाहता है
समझलो प्रिय
प्यास का सम्मान्य सौदागर
तुम्हारे युग अधर पर
चाहता रखना अलौकिक प्यास
सिर्फ समझौतों संवारी ज़िंदगी में
सुखद विश्वास वाले केतकी के फूल
भरना चाहता है
बताओ प्रीति  से परहेज़ क्यों है !


आतिथ्य

तुम्हारा वह खुला आतिथ्य
शुष्क रेतीले दहकते मरुथलों  को
अमिय बोझिल बदलियों ने
हरित सुरभित घाटियों में
पकड़कर के चंदनी पुरवाइयों का हाथ
अपने घर दुलारा
बेचारा मरुस्थल सिर्फ बेचारा
सहम कर रह गया
खनकती अमराइयों में
यूँ कि जैसे
गीत कोई ताल स्वर से युक्त
कोकिल कंठ पर जाकर
लजाकर भी उभरता जा रहा हो
इसे भ्रम हो गया है
यह रहेगा ज़िंदगी भर
अधर पर ठहरा
सुमुखि इसका सुखद संभ्रम न तोड़े
तुम्हारा वह खुला आतिथ्य
जो मिल ही गया है
चिरस्थायी मिलेगा !
 

पराजय  

मैं पराजित हो गया हूँ मीत  तुमसे
समझ लेना 
हो न पाया सर्जना का युद्ध 
केवल मिलन के भ्रम से नहीं 
जीत के स्वर में न बोलीं तुम 
किसी भी बिंदु से 
हार बनकर तुम मिलीं बस 
जीत की अनुभूति मेरी रह गयी क्वारी 
मैं तुम्हारी हार से संग्राम करके क्या करूंगा  
हार तो बैठा तुम्हारे हाथ 
अपने दम्भ सारे 
यह अकिंचन जीत ,मेरे मीत ! 
इससे समझ लेना 
तुम्हारे हार में 
गूंथे गुलाबों की महक से 
सवासित हो गया हूँ 
आत्मा से देह तक 
छोड़कर  धनु - बाण 
मैं तुम्हारी हार के सम्मुख 
बद्ध कर नतसिर 
पराजित हो गया हूँ ! 

Friday 11 April 2014

बहुत हँसता है पागल

वह पागल बहुत हँसता है
जब कोई बाप
घर में जवान कुंवारी बेटियों के होते हुए
कमाई का पैसा दारु की भटठी में झोंककर
खुद को मन का राजा बताता है
यह ठहाके लगाता है
जब कोई कर्मचारी /अधिकारी पगार से
हज़ार गुना कोठी कार और फार्महाउसों पर
लगाकर हरिश्चंद्र बन जाता है
या देश का ज़िम्मेदार नेता
साम्प्रदायिक दंगे करवाकर
प्रेम और सद्भाव पर मार्मिक भाषण देता है
 पालता है अपनी कोठियों में डाकुओं की फ़ौज
खूब हँसता है पागल !
किसी भावुक व्यक्ति से मन का सौदा कर
कोई जिस्म फरोश महिला
उसका लहू चूसकर भावनाओं का मज़ाक उड़ाकर
ओशो की फिलासफी समझाती
नए शिकार की तरफ बढ़ जाती है
तब इसे बहुत हंसी आती है !
बिना पैसे और सिफारिश के कोई प्रतिभाशाली
बेरोजगार
भारत के ईमानदार दफ्तरों में नौकरी के लिए
अर्ज़ी पर अर्ज़ी देता है
फिर एक दिन हाथ में कट्टा या
 सल्फास की गोलियां थाम लेता है
फ़ैल जाती है पागल की हंसी
जब कोई कवि
देशभक्ति की कविता पढ़ने से पहले ताल ठोंकता है
शब्दों से  नफ़रत का बारूद
झोंक देता है लोगों के ज़ेहन में
मंच  के पीछे पैसे और कविसम्मेलन के लिए
मान सम्मान का सौदा करता है
इसकी हंसी रोके नहीं रुकती
इंजीनियर का समधी ठेकेदार
बालू की छन्नी से छांटा है सोना
रिश्तों की नींव पुख्ता करता है सीमेंट और सरिया से
मिट्टी और गिट्टी से झाड़ता है चांदी
ठेकेदार समाज सेवा में
इंजीनियर ईमानदारी के लिए
शासन से सम्मान और मेडल पाते हैं
पागल के रोम - रोम तालियां बजाते हैं
सरकारी अस्पताल का फॉरेन रिटर्न सर्जन
पैसे के बिना
आपरेशन टेबिल पर
गरीब भगवानदास का फटा हुआ पेट
छोड़कर आगे बढ़ जाता है
मरीज को कभी टेबिल पर और कभी
सड़क पर मारता है
खुद को चरक ,धन्वन्तरि और हैनीमेन से
बड़ा बताता है
कभी किडनी कभी आँख और कभी खून से
विदेशों तक धंधा फैलाता है
हँसते - हँसते दुहरा हुआ पागल
अचानक धाड़ मार कर रोता है
जब किसी सहीद का शव
तिरंगे में लिपटा उसके सम्मुख होता है
अथवा किसी कोठी से
नन्हें - मुन्नों की दिल डाला देने वाले चीत्कार
नर पशुओं की क्रूरता के नीचे
डैम तोड़ देते हैं
या किसी कूड़ेदान में अविवाहित माँ
अपनी संतान को छाती से अलग कर
कुत्तों के लिए छोड़ देती है
ज़ार - ज़ार रोता है यह पागल
जब कोई,संपत्ति के लिए
अपनी माँ ,बहन ,पत्नी ,भाई और बाप को
कुल्हाड़ी या फरसे से छंट देता है
निर्ममता से शिशुओं की भी काट देता है गर्दनें
संबंधों की इस सफेदी पर
यह पागल हर बार अपना धैर्य खोता है
पागल तो पागल है
कभी हँसता है कभी रोता है !

चित्र के भगवान

नमन तुमको चित्र के भगवान
मेरे राम
तुम हो उन पलों की सृष्टि
जब अनहद जगा अनुभूति  जाएगी मनुज में
और वह करने लगा अनुमान
स्वयं में उसने तलाशा अंततः यह रूप
हे चितेरे के ह्रदय के भूप !
अलौकिक /अनुपम सुघर छवि
चेतना में चिर निहित अस्तित्व
कल्पना के तरल रंगों से संवारा
कामना की कूचियों से
ह्रदय की करुणा चिरंतन वेदना से
डालकर प्रतिबिम्ब में नव प्राण
खुद महकने लग गया
निज भावना की सुरभियों से !
नमन तुमको आर्त के सौंदर्य !
मनुज के अन्वेषणों का ताप
हैं अलंकृत आप जितने रंगों से
उतने ही रंगों में था विभाजित
छवि तुम्हारी है महज एकात्म दर्पण
अंतर का समर्पण है तुम्हारी सृष्टि
स्वीकारो मुझे
राम मेरे चित्र के भगवान !

भूल

मीत  मेरी या तुम्हारी
या किसी अज्ञात अवसर की हुई है भूल
नाव से मस्तूल कैसे कट गया
प्रीति  का पीयूष अंतर में भरे बादल प्रवासी
एक तडिता  हो गई चंचल
सहज ही देखकर उसको
हलचलों में खो गया बादल
वक्ष पर था चंचला का नृत्य
और बादल प्रीति का घट था संभाले
दानियों की कोटि से नीचे गिरा
आहत श्याम घन
ज्योति की पग थाप में तल्लीन
हो गया वह आग के आधीन
छोड़कर मूर्छित उसे
 हो गई तडिता अचानक लुप्त
मर्म पर थे घाव गहरे
फूल सौरभ पंखुरी के साथ बिखरा
जगत के निस्सीम नभ में
इस तरह छितरा चुका था
समय के ठहराव से ऐसे जमी
शान्ति के मेधापटल पर वासना की धूल
कट गया मस्तूल मीत बोलो
चंचला की जलद की या या उन पलों की भूल
बहुत मुमकिन है कहानी
तुम्हारी और हमारी ज़िंदगी कर अदृश पृष्ठों पर
विधाता ने गढ़ी है
खुली आँखों का भयावह स्वप्न
मैं पुरुष था और बादल भी
तुम्हें पथ में हमारे चंचला का रूप धरकर
निठुर यूँ आना नहीं था
आत्महंता प्रणय का खिलवाड़
छोड़कर उन्माद क्या
गंभीर हो जाना नहीं था
दोष केवल है तुम्हारा क्योंकि मैं नर हूँ
नारों की यह नियति है
भूल तो है भूल आदत है मनुज की
भूल की स्मृति रही दुहरा तुम्हें
सघन कुहरे सी अयाचित
किस तरह भूलूँ हुई जो भूल !


यंत्र मानव

मैं महत आश्चर्य का प्रतिमान
मनुज की सबसे विलक्षण खोज
यंत्र मानव
आज के विज्ञान का उद्योग
एक स्पर्धा पुरुष की सृस्टिकर्ता से
लौह निर्मित मनुज सी काया
उसी के मष्तिष्क जैसा तेज
मेरी व्यष्टि में है एक छोटी चिप
और दिल भी बैटरी का
भाव और संवेदना से मुक्त
शब्द हों या रंग या आवाज़
जान लेता हूँ प्रकति के खेल
दौड़ती विद्युत तरंगें तंत्रियों में
रक्त के स्थान पर
धड़कने मेरी मनुज के हाथ मेरे साथ मबचाहा किया
चाहता है वह
अनवरत करता रहूँ मैं वार श्रम पर
पसीने का दुखद संहार
आँख मेरी दे चुनौती सामने ईश्वर
आखिर आदमी ने ही रचा है
निरखता मुझको परखता दूर से ही
दूर रखता है मुझे संवेदना से
सोचता होगा कहीं होकर निरंकुश
आदमी की भांति  ही इंकार कर दूँ मैं
सृजक की दासता से स्वयंभू बन
करने लगूं मनमानी
स्वयं ही लेने लगूँ  बिजली
साथ लेकर साथियों को रास रच बैठूं
धारा के वक्ष पर
हर तरफ बिखरी पड़ी होगी मनुज की हाय
रुदन हाहाकार चारों ओर
 आदमी जो बाहु शक्ति विहीन
सर्वथा निरुपाय
और बढ़ने दो मेरा संसार
सचमुच मैं करूंगा एक अद्भुत क्रान्ति
यह असंयत दर्प के आधीन
ज्ञान कोकीन लेकर ज़ेहन में
बुद्धि की प्रभुता पड़ेगी भावना के पाँव
सौंप देगी नियति के हाथों दांव सारे
मैं रचूंगा फिर नया संसार
प्यार होगा सिर्फ मेरी सृष्टि में
ह्रदय में भगवान
भले हो जाऊं कहीं बलिदान
यंत्र मानव मैं
आदमी को प्रेम की पुरवाइयां दूंगा
तुम्हें भी शायद प्रतीक्षा हो उसी दिन की !   
एक थी सोना

एक थी सोना
साहित्य की अध्यवसायी /कला की व्यवसायी
कविता भी कहानी भी
कहानी में कई तरह के पात्र
जाति /धर्म और आयु के बंधन से मुक्त
कविता में गज़ब के मन्त्र
मोहन फिर वशीकरण
उच्चाटन के बाद मारण
कला साध्य भी साधन भी
कलाके मूल्य से पूरी तरह भिज्ञ
कलाके सौंदर्य के प्रति हर क्षण सजग
गहरी अभिव्यक्ति /अद्भुत अभिनय
कला की प्यास में टूटे मन /सूनी आँखें
धुंआं - धुंआ सीने /न्योछावर हो जाते लोग
साहित्य को समेट लेती कला के वज़ूद में
कला के व्यापार में दक्ष
कभी स्वयं की गैलरी कभी दूसरे की
साहित्य के सेवकों कला के उपासकों से
अपनी कृति  के एवज़
तन ,मन धन और प्राण तक वसूल लेती
 सर्वस्व खोकर सम्मोहन में बंधे जड़ लोग
फिर भी गुणगान करते उसका
ऐसा जादू ऐसा टोना
एक थी सोना !
कलाकी अभिव्यक्ति में संवेदना के
अतिरंजित गहरे चित्र
स्वयं संवेदन शून्य
न आंसुओं का असर न शब्दों का प्रभाव
हलाहल भी दे तो अहसान करे
सात पर्दों में छुपी कुटिलता
साहित्य का सम्राट मन से भिखारी
समर्पित हो गया कला सुंदरी को
उसकी कला को संवारने के लिए
उसकी आत्मा को पखारने के लिए
उसके विष का शमन करने के लिए
सब कुछ लगा बैठा दांव पर
अपने लहू से चित्रों के रंग गहरे किये
अपने वज़ूद की चादर से अतीत की धूल झाड़ दी
नाम की सोना को सोना बनाने के प्रयास में
स्वयं शून्यत्त में खोने लगा
और वह व्यावसायिक निष्ठुरता का हाथ थाम
एक झटके में उसका समग्र तोड़कर
अपनी कला का दम्भ पाले
कृतघ्नता को चरमोत्कर्ष देती
उत्तर गयी फिर किसी नयी गैलरी में
निश्चित ही उसका कला व्यवसाय बढ़ेगा
दूरदर्शन के चैनलों पर
उसकी कला का प्रदर्शन उसके साथ
करोड़ों कला प्रेमी देखेंगे
वह चाहती ही थी इतना विस्तृत होना
ऐसी थी सोना !


Thursday 10 April 2014

कविता

आकुल पुकार कवि के ह्रदय की
 मानवता के ललाट पर चन्दन
भाषा और संस्कृति का श्रृंगार !
मरुस्थल में बहने वाली गर्म हवाओं में
मलयज समीर घोलती है
जबजब इंसान चुप होता है कविता बोलती है
ज्ञान के अर्थ शास्त्र पर संवेदना से लिखा
प्रेम का संविधान है
बाप के क्रोध पर वासत्सल्य  के अमृत की तरह
शिशु की अलौकिक मुस्कान है
आग है पर छप्परों को नहीं जलाती है
यह आंधी झोपड़ी में जलते दिए का
 रक्षा कवच बन जाती है
नफरतों से ग्रस्त  कुटिल चिंतन को झंझोड़ती है
यह बृह्मा के कमंडल का करुणा जल है
टूटे हुए दिलों को जोड़ती है
मानवीय चेतना में प्यार का
शीतल आलोक भरती  है
राजनीति नहीं है कविता
जो धर्म ,जाति ,भाषा और दाल के नाम पर
इंसान से इंसान को अलग करती है
कल्पना की झील पर तैरते भावना के खेतों पर
प्रीति  के केशर की किसानी है
टूटे सपनों के होंठों पर
छटपटाती प्यास के लिए
संवेदना का मीठा पानी है !
कविता जन्म के साथ कवि को सृस्टा बनाती है
अपनी अनुभूतियों के सहारे उसे दृष्टा  बनाती है
विधाता की रचना में ही कवि का
अपना अलग रचना संसार है
कवि को अपने समकक्ष बिठाने के लिए
परमात्मा का यह अनुपम उपहार है
आध्यात्मिक चेतना /दार्शनिक चिंतन
को कविता स्नेह की तरलता देती है
कवि को प्रेमी ,पागल और फिर दार्शनिक
बनाकर ही दम  लेती है
व्यवस्था के समक्ष खड़े शोषित व्यक्ति का
अहिंसात्मक हथियार है
आपत्ति काल में भी डेरी और मर्यादा की पतवार है
ठंढी रातों में ठिठुरते
जेष्ठ की दोपहरी में तपते
बैलों के साथ पसीना बहाते
धरती के देवता का स्वाभिमान है
सरहदों पर गोलियां झेलते
देश के सैनिकों की पूजा में रचित सामगान है
भ्र्ष्टाचारियों ,अनाचारियों और देशद्रोहियों के
गालों पर पड़ने वाला ज़ोर का तमाचा है
कवि के द्वारा उठाया गया
करुणा , प्रेम और शान्ति का त्रिवाचा है
हवाओं में तब-तब सुगंध फैली है
जब - जब कविता अपने रस में चली है
सत्य की शपथ उठाने वाले कवि के हांथों में
कविता शब्दों की गंगाजली है
कविता रूप के मंदिर में प्रेम के देवता पर
चढ़ाया गया अनाघ्रात सुमन है
यह उन्हीं को रास आती है
जिनके पास एक खूबसूरत मन है
यह अनुराग की ऐसी भीनी फुहार है
जो संतृप्त ह्रदय को पोर - पोर नहलाती है
इसे अपने पथ का सही ज्ञान है
ह्रदय से निकलकर सीधे ह्रदय तक जाती है
विषाद के खतरनाक क्षणों में
हताशा से बचाने वाली मज़बूत ढाल है
कविता कवियों के लिए
ज़िंदगी है कपड़ा है मकान है रोटी और दाल है !   

Wednesday 9 April 2014

वह लड़की

उस लड़की से बेपनाह मोहब्बत है मुझे
दाखिल हुई मेरे जीवन में
टूटती उम्र के पड़ाव पर
प्यास चटख जाने के बाद
एक समझौते के तहत !
टूट गया अलिखित समझौता
औपचारिकता के कांच की तरह
किरच - किरच
तपती  दोपहर में बदली की भाँति
अचानक ही आंधी - तूफ़ान में
तेज बारिस में /बर्फीली हवाओं में
खुद को मेरे पास आने से नहीं रोक सकी
अदम्य आकांक्षा थी उसकी
मुझे छूने / देखने की
अस्तित्व में समा जाने की
ऐसा किया भी उसने
तपते चुंबनों /रेशमी छुअनों  का
सम्मोहक दृष्टि का
जो रक्त में घुल  - घुल जाए !
मेरे भीतर का हिटलर मर गया
विरह की आग में झुलसता
वनवास का दारुण दुःख झेलता
हताशा के हलाहल से मृतप्राय यक्ष
अनुराग की ऊर्जा के जागते ही
जीवन के प्रति मोह से भर गया !
प्यास - प्यास में घुलने लगी
न कोई अवरोध न शर्त
न बंधन न मुक्ति / केवल समर्पण !
प्यार और केवल प्यार
फिर शुरू हुए गिले शिकवे
मेरे समूचे अस्तित्व पर
असर करने लगी दुनियावी संबंधों की तुलना
मेरी आत्मा में झांकने के बजाय
मेरी धड़कनों को अनसुना कर
आँखों में प्यार के अक्स देखना छोड़
तर्कों और सफाइयां का सिलसिला
सच्चाइयों को ढकने के लिए गुस्से का पर्दा
मेरे प्यार की कमजोरी को हथियार बना लिया
मैंने अपने पास उसके अलावा कुछ भी  नही रखा
सोच की अंतिम सीढ़ी तक केवल वही
मन की टूटन शरीर पर भारी पड़ी
सपनों की दुनिया से यथार्थ में वापस लौट गयी
आज वर्षों बाद फोन पर जब उसने
हेलो कहकर मेरा हाल चाल पूछा
सूखे पत्तों की तरह झड़ गया मेरा यथार्थ
चाहने की हदों के आगे अंतिम सांस तक
मेरी सोच में वही रहेगी
यह मेरा अंतिम सत्य है
वह लड़की जो पहली और अंतिम बार
आंधी की तरह आई थी मेरे जीवन में !


Sunday 6 April 2014

नई कविता

रचनाकार को भूख लगी
रपटी पर लिख दी एक कविता
नहीं भरा मन
व्यंजनों के नाम लिख डाला एक गीत
प्यास में वर्षा पर गीत लिखा
और बड़ी प्यास इतनी कि
झरनों नदियों और सागरों पर छंद रचे
फॉर भी नहीं बुझी प्यास
अब उसने मदिरा के छलकते प्यालों
सुरा- सखी की  मादक दृष्टि पर लेखनी चलाई
 थक गया कवि
गीत की फर्श पर चांदनी बिछाकर लेट गया
गर्मी और उमस ने हलकान किया
पुरवैया के शीतल झोंकों पर बुन दिया
लोकभाषा का मधुर गीत
करवट बदली
देह की तृष्णा और प्यार की चाहत ने
सोने नहीं दिया
उसने सुन्दर स्त्री के आपाद मस्तक
श्रृंगार के अक्षर - अक्षर सजा दिए
अतृप्त मन फिर भी आकुल रहा
उसने कागज पर रूपायित कियाएक अलौकिक
अप्सरा की छवि को
होठ जलने लगे उसके
धुंवां भर गया वक्ष में
साँसें अनियंत्रित हो गयीं उसकी
स्त्रियों क्र चेहरे बदल - बदल कर
रच दिए कितने ही छंद
हर सृजन पर उदास होता गया
चुकने लगे उसके शब्द
कागज पर उभरा एक चेहरा अक्षरों की शक्ल में
प्यास ने आत्मा तक को छटपटा दिया
शब्दों का टोटा  हो गया
उजड़ गयी भावों की दूकान
अचानक उसके बच्चों ने रोटी का सवाल किया
उसकी बीमार मरणासन्न /जर्जर तन पत्नी से
कवि की लेखनी की स्याही सूख  चुकी थी
आसुंओं  की तरह
निधन हो गया भावों का
 अतृप्ति के आघातों से
उसने रोटी पर कविता लिखने का
फिर असफल प्रयास किया
रोटी नहीं बनी कल्पना में
टूट गया सारी विधाओं का व्याकरण
चेतना को अंतिम बिंदु तक झकझोरा
नहीं निकला कोई परिणाम
इस बार उसने क़लम कि गैर मौज़ूदगी में
 भाव / शब्द और कल्पना के बिना
एक नयी कविता लिखी
" सल्फास" !


Saturday 5 April 2014


यह तुम्हीं हो न

वह विचार जो मेरी चेतना को मथ रहा था
सपना जो आँखों में सोते जागते आ जाता है बार - बार
मेरे न चाहने के बाद भी
नहीं मुक्त हो पाता  मैं उससे
वह विचार जो मृत्यु के भय को
जीवित कर रहा था
जीवन संघर्षों की अलिखित गाथा का साक्षात्कार
धड़कनों के संगीत का व्याकरण
समझाने को आकुल - व्याकुल
वह विचार जो पाँव के कांटे को हिला - हिलाकर
मेरे ज़ेहन को कंपा रहा था
उसके समानांतर किन्तु उसके बाद
वह सपना जो पांवों को
फूलों की घाटियों में ले जाता है
वह सपना जो तपती  दोपहरी में
 छायादार पेड़ की तरह
पड़ाव बन जाता है यात्रा का
वह सपना कभी-कभी आता है
तुम्हारी तरह
हाँ अकेला छोड़ते वक़्त कहता है मुझसे
मुझे कुछ पल रहने दो अकेला
मुझे उस सपने और तुममे
कोई अंतर नहीं लगता
मैं अधिकार जमा सकता  हूँ
न उस सपने पर न तुम पर !
न उससे अलग हो सकता हूँ न तुमसे
तुम्हारी ही तरह उसकी भी धुन है
इस वक़्त वह  सपना और तुम दोनों हो
मैं हूँ एक प्लेटफार्म सिर्फ प्लेटफार्म
आने - जाने वाले क्यों चिंता करें उसकी
कभी प्रारम्भ कभी पड़ाव
मंजिल किसी की नहीं प्लेटफार्म
यात्रियों के चरण- चिन्ह
केले और संतरे के छिलके /लिफ़ाफ़े /पान की पीकें
अपने वक्ष पर तब - तक रहता है संजोये
जब - तक स्टेशन का सफाईकर्मी
अपनी कृपा न करदे !




इन्हें जीवित रखना

आकाश में उड़ती पेड़ों पर चहचहाती
रंग - बिरंगी चिड़ियाँ
भांति -भांति के सुकुमार रंगीन फूलों से सजे
महमहाते उपवन
फूलों पर छिटक - छिटक कर बैठती तितलियाँ
ऊँचे - ऊँचे पर्वत /झर - झर झरते प्रपात
उठता है उनसे ठंढा धवल धुंवां
अलस तोड़ती भोर की स्वर्णिम किरणे
तपा हुआ सोना बिखेरता
उदयाचल से प्रकट होता अंशुमाली
मादक सिहरन जगाती पुरवाई
निरभ्र व्योम में रात भर यात्रा करता
मन का सहचर कलाधर
कल - कल छल - छल बहती नदी
और नदी के दोनों निःशब्द शांत किनारे
बहुत भाते थे मेरे मन को !
मन का खरगोश देह से दूर भटकता रहा
जाने कहाँ - कहाँ इनके साथ
किन्तु यह सब तुम्हारे आने से पहले की घटना थी !
तुम आईं जबसे प्राणों के क़रीब
तबसे मेरी भौतिक आँखें
मेरी आंतरिक दृष्टि तुम्हारी व्यष्टि में
चहचहाती चिड़ियाँ /गंधित फूलों वाले वन
पर्वत और प्रपात /सूर्य और चंद्रमा
पुरवाई और नदी
दोनों का अनवरत बहना
तलाश चुकी हैं
इनसे विलग नहीं कर सकता मेरी दृष्टि
कोई घटना कोई स्पर्श
जहाज़ के पंछी की तरह
सातों सागरों के आकाश में
अपनी उड़ानें व्यर्थ कर मेरा मन
लौट चुका है फिर जहाज पर
क्या तुम इसके लिए ज़िंदा रखोगी
वह सभी कुछ जो इसने तुम्हारी सृष्टि में
तलाश लिया है
तब तक ,जब तक मैं जीवित हूँ !
सुधियों की उल्काएं

परिक्रमारत हैं उल्काएं निरंतर
सुधियों की उल्कायें
 अवचेतन के आकाश में
चेतना की धरती से
  स्थापित करती हैं अपना तादात्म्य
ताप्ती हुई रेट / जलते हुए पाषाण खंड
और शून्य को लपेटने की आग है
इन धधकती उल्काओं में !
मेरे अंतर के बृह्मांड में इनका होना
मेरे होने का प्रमाण है !
कोलाहल उठाती यह उल्काएं
ह्रदय की विशाल झील के नीले जल से
आकर्षित हो
अपनी जलन शांत करने के लिए
टूट - टूट कर गिरतीं हैं
आश्वस्ति ,धैर्य ,तटस्थता
पलायन और प्रतीक्षा जैसे शब्द
सारहीन होकर खो देते हैं अपना अर्थ
शेष बचती है एक मर्मान्तक पीड़ा
असंतोष की उत्ताल लहरें
जिन्हें कोई शब्द /स्वर /गीत /स्पर्श /विचार
सांत्वना का बहाना भी नहीं दे पाता
अंतर और वाह्य के अनंत में
अपना समाधान तलाशता एक सचल शून्य
अपनी रिक्तता की पूर्ति के लिए
जिसे केवल और केवल तुम्हीं
अपने सम्पूर्ण समर्पण और उपस्थिति से
अभीष्ट दे सकती हो
आखिर तुम हो कहाँ ?




तैयार नहीं

भाग्य ने भूख को दिए हरे भरे खेत
लहलहाती फसलें
लेकिन रोटी नहीं दी
प्यास के लिए आकाश में घिरे काले - काले
पानी से बोझिल बादल
नदियों और झीलों के सपने
पानी की एक बूंद नहीं
वक्ष की शून्यता को कहानियों के रगीन
कल्पना कुसुम
खतरनाक मुँहज़ोर विषैला धुंवा
यह सभी खिलौने संभाले अकिंचन ह्रदय
सदियों की भूख आदिम प्यास
वक्ष की अहैतुकी शून्यता को
कब तक सहन करे !
कब तक रोके
 वर्षों से सुलगते ज्वालामुखी को
जो हर क्षण विस्फोट के लिए उद्यत है
अभी ह्रदय में समझौतों की
 गीली मिट्टी से ढका है
कब तक बहलने का स्वांग करेगा
यह मन अब खिलौनों से बहलने
और किसी नयी चोट के लिए
बिलकुल तैयार नहीं !


क्या दूँ तुम्हें

एक खालीपन तब भी था
जब तुम नहीं थीं
एक बेताबी अब भी है जब तुम मिलीं
एक तूफ़ान तब आया
जब तुम मेरे रोम - रोम में
मेरे लहू की बूंद - बूंद में
मेरी चेतना के कण -कण में
मेरी आत्मा के शून्य में
मेरे ह्रदय के स्पंदन में झनझनाकर
समा गयीं !
जागी एक बेचैनी मन के साथ
काया की अनिर्वचनीय भूख की
न ख़त्म होने वाली प्यास की
असहनीय तुम्हारी अनुपस्थिति
मेरे समर्पण की धज्जियां उड़ाते
तुम्हारे आरोप तीखे प्रतिउत्तर
तुम्हारी तकलीफें वेध गयीं फौलादी सीना
पोर - पोर में उतर गयीं तुम्हारी उदासियाँ
निकाल गया जान तुम्हारा रूठना
तुम्हारा मौन
दर्द के झकोरों की तरह
लम्हा - लम्हा मार रहा है मुझे
सोच रहा हूँ तुमने हमेशा दिया है
कुछ न कुछ
अब मैं क्या दूँ तुम्हें ?

कैलेण्डर का किसान

यह बरसात का मौसम है
चारों और पानी ही पानी
अब जेठ की तपती  दोपहरी
सांय - सांय करती हवाएं
रेतीली  आंधियां /चटखती धरती
तड़ - तड़ टूट रहे ओले
खेतों को रौंदती कोहरे की फ़ौज
टूट पड़ी सिवान पर
बाढ़ का महा प्रलय
पानी में डूब गए खेत
पाले में झुलस गयी अरहर
लू से राख हो गयीं फसलें
धीरे - धीरे गुज़र रहा था यह सब
खेती किसानी पर
मेरे कक्ष में टंगा कैलेण्डर
कैलेण्डर में कंधे पर हल रखे
बैलों की जोड़ी के पीछे
मुस्कुराता किसान
अब भी मुस्कुरा रहा है
दीवार से रगड़ - रगड़ कर
चिंदी - चिंदी नहीं हो जाता कैलेण्डर
अथवा हवा के किसी तेज झोंके से फट नहीं जाता
मुस्कुराता ही रहेगा यह किसान
कोई मौसम /आंधी तूफ़ान
जलाती लू /ओलों की बारिस
इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते !


विवशतायें

जागना और सोना
सोने के लिए पलंग बिस्तर चादर तकिया
सभी कुछ ठीकठाक करना
जागने के बाद दैनिक क्रियाकलाप
उसके उपकरण जुटाना
गरम या ठंढे पानी से नहाना
चाय और जलपान
टहलना सेहत के लिए उपयोगी
स्वस्थ रहने के लिए ज़रूरी योग
कपडे बदलना फिर बच्चे
उनकी स्कूल ड्रेस ,होम वर्क
फटी हुई कापी किताबें चिपकाना
नास्ता तैयार करना
उनके और बच्चोंं के लिए टिफिन
फिर भोजन बनाना खाना भी
बर्तन धोना  कपडे प्रेस करना थोड़ा सुस्ताना
मन करे तो लिखना
एक बार और चाय
चाय की चुस्कियों के साथ दूरदर्शन
किसी धारावाहिक में आँखें टांगना
कितनी व्यस्तताएं हिन्
तुम्हारे जीवन में
आवश्यकताओं और विलासिताओं में
बनता तुम्हारा अस्तित्व
तुम्हारी ये विवशताएँ कहाँ वक़्त देती हैं
कि तुम एक फोन कर सको !
पुश्तैनी घर ढह गया

पितामह के भी पितामह ने अपने सर पर
मिट्टी ढो - ढो कर रचीं थीं दीवारें
बांस और शीशम की धन्नियों से छत पड़ी
बनी कोठरियां /बैठक और रसोईघर
साल दर साल बदलते रहे तरवाहे के छप्पर
समय सापेक्ष पीढ़ियों के साथ
सुखद भविष्य की अगवानी में
इस पुश्तैनी घर के चारोंओर पहरा लगाते रहे
पुरखों के संस्कार
कब जाने छप्पर की जगह पड  गयी
टीन की चादर कच्ची दीवारों पर
पीली मिट्टी और गोबर की जगह
पोता जाने लगा चूना
खूब ज़्यादा होने लगी सफाई
इतनी कि घुटने लगा संस्कारों का दम
पचासों बरसातें /भूकम्प और बाढ़ें
आक्रामक हुईं इस पुश्तैनी घर पर
सीना तान कर खड़ा रहा घर
प्रतिद्वंदी पहलवान को अखाड़े में पछाड़
विजेता मल्ल की तरह हाथ उठाये
अपने बच्चों पर पंख फैलाकर बैठे
कबूतर की तरह
कभी कोई कोना टूटा भी
मिट्टी भी  खिसकी किसी दीवार से
 घर  का यह दुःख परिवार ने हाथों हाथ लिया
बूढ़े बाप की टहल की तरह
पहरेदारी कर रहे पुरखों के संस्कार
भेंट चढ़ गए विषैली हवा की
नयी पीढ़ी के पाँव बाहर निकले
घर की दहलीज़ से इसतरह
एक बरसात भी नहीं झेल सका  पुश्तैनी घर
हिमालय की तरह सीना ताने
कई दशक से खड़ा था
इस बार की बरसात में ऐसे ढह गया
मानों वह ढहने के लिए
इसी बरसात की राह देख रहा था !
ग़ैर ज़रूरी है

कितना ग़ैर ज़रूरी है भूख मरने पर खाना
रात खराब करने के बाद तानकर सोना
प्यास चटख जाने के बाद पीना
फिर वः विष हो अमृत हो या मदिरा
पानी या दूध
उससे भी अधिक अनावश्यक है
 किसी के अनचाहे प्यार को
अधिकार के रूप में स्वीकार कर लेना
उलाहनों और बहानों के सहारे
सम्बन्धों को चलाते रहने के लिए
विवशता  का वरण  करना
किसी अपने का मन रखने के लिए
किसी का भरोसा तोड़ देना
सबसे अधिक अवांछनीय है !
विश्वास  की ज़मीन पर
चमकदार अविश्वासों के बीज बिखेरना
और इसी छल को निरंतर
सच कहते जाना
निहायत ग़ैर ज़रूरी है !`
रेगिस्तान  का भाग्य

नदी कितने तेज बहाव में थी
किनारे के पेड़ रेट के टीले जहां तहां बसे घर
समेत लिया उफनाती धारा में
मौसमों का अंदाज़ा गलत निकला
वर्षा ने कोहराम नहीं मचाया
बरफ के गोले भी नहीं गिरे
पत्थरों के सीने से विस्फोट कर निकली थी नदी
प्यास की शताब्दियां लिए
स्वागत में बाँहें पसारे बिछा था मरुथल
कहने के लिए उसके पास अपना समंदर
अपना विस्तृत जल साम्राज्य हो सकता था
हरहराती हुयी नदी
सागर के आवाहन का तिरस्कार कर
बिछ गयी रेगिस्तान के सीने पर
धारा की गति मंद हुई
 फिर न जाने किसकी पुकार पर
रेगिस्तान में
खुद के विलय से इनकार करती
वापस पहाड़ में समा गयी
कभी नहीं हुआ था ऐसा
किसी ने नहीं देखा था
ऐसी कोई सम्भावना भी नहीं थी
हत भाग्य रेगिस्तान
उलटे हर्फों में लिखी है विधाता ने
तेरी क़िस्मत !
भाषा की ढाल


कौरवों का अंत अर्थात एक और महाभारत
वाटर लू का संग्राम
नेपोलियन की पराजय
किंकर्तव्य विमूढ़ इतिहास
आज समय के पास युद्ध टालने के लिए
ढाल है भाषा की !
हर वार नाकाम करने के लिए
सियासत की तेज धार वाली तलवारें
जातीय उन्माद की बर्छियां
धर्म की ध्वजा के त्रिशूल
वर्ग भेद की बंदूखे
सत्ता मद की भारी भरकम तोपें
आतंकवाद की मिसाइलें
सभी का लक्ष्य समय का वक्ष
समय के वक्ष पर मानवता का कवच
सुविधा की आंच और गद्दारी के
तेज़ाब से पिघलने लगा है
अब समय के पास केवल भाषा की ढाल है
मुर्दे में फूंक देती ज़िंदगी का विश्वास
इंसान को उसके होने का अहसास !
भाषा संकेतों और तरंगों से होते हुए शब्दों  तक
फिर अशब्द तक पहुँच रही है
अष्टधातु से भी ज़्यादा मज़बूत
भाषा की ढाल
आकार ,नाम और विस्तार देने वाले
क़समें खाने वाले इसके नाम की
पुरोधाओं ने ही रच दिया चक्रब्यूह
कहीं हिंदी तो कहीं उसकी सहचरी बनकर
आज अभिमन्यु की तरह असहाय
भाषा की ढाल !
सियासत के दुर्धर्ष महारथियों ने
गदा रखी है अपनी तीखी दृष्टि
समय के हाथ में है यह भाषा की ढाल
इसी के अलम्बरदार इसे बचाने का
ढिंढोरा पीट तलास रहे हैं ऐसा केमिकल
जिसे पड़ते ही राख हो जाए
भाषा किई यह मज़बूत ढाल !

Wednesday 2 April 2014

स्वागत नए वर्ष का

हे समय की कालबद्ध संज्ञा के प्रतीक
 नूतन वर्ष तुम्हारा स्वागत है
पलकें बिछी हैं तुम्हारी अगवानी में
चलकर आ सकोगे इनपर
बहुत कठिन होगा तुम्हारे लिए
तीन सौ पैंसठ दिनों /रातों के सम्राट
फूलों की तरह बिछे हैं बड़े - बड़े लोग
तुम्हारे स्वागत में
तुम स्वीकार करोगे कुछ क्षण बाद उन्हें
फूलों की जगह अपनी विराट लिप्साओं से
गुंथे हुए हार लिए स्वागत में
चहरे बदल चुके ये चरित्र
तुम्हे घर में सजाकर महान हो जायेंगे
ये बौने लोग
इन्हीं की आकांक्षाओं के रथ पर
बैठ कर आना तुम
भीड़ के समुद्र में बूंदों की तरह लहराएंगे
तुम्हारी अगवानी में हम जैसे लोग
आरती गाकर तालियां बजायेंगे
 भले ही नहीं देख पाएंगे तुम्हें
और उस रथ को भी जिस पर
बैठे होगे तुम बादशाह की तरह !
संसार को नवीनता का आभास देने वाले
जादूगर नए साल !
तुम्हारी आहटों के साथ जाते हुए साल की सवारी
कहाँ देख पाये  हम
कोशिश कर रहे हैं महसूसने की
हैम उस वर्ग के हैं जो केवल
महसूस करने के गुण धर्म से मालामाल है !
हे ,हर्ष और सम्भावनाओं के विश्वास
 एशिया खंड का भारत भी सवा अरब लोगों के साथ
अपना भरोसा जोडे है तुम्हारे साथ
वैसे इसे तज़ुर्बा है  विश्वास और दिल के टूटने का
रखना याद
व्यवस्था की यह भारी -भारी मालाएं
तुम्हें मज़बूर कर देंगी
थोड़े से लोगों के आगे आभारी होने के लिए !
एक -एक पल से जुड़े समय के संकलन !
सुनना मेरी भी प्रार्थनाएं
भले ही प्रतिभाओं का परिहास करना
उपहास करना निर्धनता का
दुखियों को शान्ति पाठ सुनाना
पीड़ितों को मोक्ष का मार्ग बताना
चाटुकारों को चांदी बांटना
अवसरवादियों का बर्थडे केक  काटना
षड्यंत्रकारियों को सुविधाएं और
 भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए
नयी - नयी धाराएं देना
महानता की नवीन परिभाषाएं देना अनाचारियों को
लेकिन इस अभागे देश की
बड़ी - बड़ी कुर्सियों के खाते में ज़रूर लिख देना
थोड़ी सी संवेदना /ममता/करुणा
और प्यार के साथ इंसानियत का पहला अक्षर !

  
रिक्शेवाला

पसीने से भीगी बंडी ,फटा गंदा पायजामा
बिखरे सूखे बालों की तरह
बिखरी ज़िंदगी को संवारता
तपती  दोपहर से जूझता रामदीन
एक जोड़ी चप्पल घिसने में
प्रदेश की चार और देश की दो सरकारें
किसान के धैर्य की तरह
लड़खड़ाकर गिर गईं !
रामदीन इसी रिक्शे पर टंगा
अपनी पुरानी घिसी चप्पलें चटका रहा है
पसीना है कि बैंक के कर्ज़ों की तरह
सूखे बालों के बीच रास्ता बनाकर
माथे से पलकों पर होता हुआ गालों को भिगोता
उसके अस्तित्व को झकझोर रहा है !
धूप से चौंधियायी आँखों में
दमकती दस रूपये के नोट की चमक
अंगौछे से बार - बार पसीना पोछ
पुरानी  फ़िल्मी धुन पर रिक्शा खींचते हुए
रामदीन से सवारी ने अचानक पूछा
"कंहाँ रहते हो "
उत्तर न मिलने पर फिर वही सवाल
"यहीं रिक्शे पर "
"कोई कमरा नहीं लिया "
"नहीं ,परिवार गाँव में है "
"घर में कौन - कौन है "
"चार बच्चे /एक ठो बीबी ऊपर से बूढ़े माँ  - बाप
मेरे अलावा कुल सात परानी "
"रोज़ गाँव चले जाते हो "
"नहीं बाबू ! गाँव तभी जाता हूँ
जब ज़ेब में महीने के राशन ,दवा - दारु
बच्चों की फीस और कापी किताबों के
पैसे आ जाते हैं "
"अगर कमाई न हो तो "
"मेरे पांवों की ताक़त /हांथों की मज़बूती
मेरे परिवार की दुआओं से कम नहीं होती
कमाई होती नहीं की जाती है बाबू :'
फिर कोई सवाल नहीं
नामुराद सपनों में खोया रामदीन
किसी देश का प्रधान मंत्री
किसी प्रदेश का मुख्य मंत्री क्यों नहीं हो जाता
अथवा
उसकी जिम्मेदार कर्मनिष्ठा
हमारे देश के नेताओं /पूंजीपतियों
लालफीता धारकों और बुद्धिजीवियों में
स्थानांतरित क्यों नहीं हो जाती ? 

Tuesday 1 April 2014

सुनामी

कहाँ गई हथेली की लकीरें ?
क्या हुए जन्म पत्रियों  के फलादेश ?
लड़खड़ा गए विज्ञान के चमत्कार
नकर्म न भाग्य केवल हाहाकार
बचे तो वे भी नहीं
जो पढ़ते थे विधाता का लेखा
गणना ज्योतिष की
दो साल बाद शादी /पांच बच्चे
दो लड़के तीन लडकियां
अगले साल लगेगी नौकरी
दस साल बाद नये मकान का योग
उम्र पूरे छियासी वर्ष
पक्का - पक्का रंच भी संदेह नहीं !
स्वतन्त्रता दिवस पर तिरंगे के सामने
राष्ट्र गान गाते हुए जयहिंद कहने का हौसला
किसी ने सागर से नहीं पूछा
न ही किया सवाल नियंता से
क्या तमिलनाडु और क्या निकोबार
श्रीलंका या इंडोनेशिया
हर आदमी के पास अपना भाग्य
अपनी हथेली /जन्म पत्री  भी
खूबसूरत सपने भविष्य के !
पूरा चाँद चांदी के थाल जैसा
चांदनी के बहाने अमृत कुम्भ से अमृत बरसाता
शिव / विष्णु /गणेश /सूर्य //हनुमान दुर्गा और लक्ष्मी
गिरिजाघरों में क्रास पर लटके
ईश्वर के पुत्र
अल्लाह की इबादत के ठिकाने
गुरुग्रंथ साहिब की चंदनी रहलें
अपनी कृपाओं से चराचर को अभय देने वाले
अलौकिक शक्ति पुंज
स्त्री /पुरुष /पशु पक्षी और तमाम योजनाएं
प्रीति और द्वेष
युद्ध और शान्ति
मान -अपमान /उपकार -अपकार
खुले मैदान और वन
सागर ने ली केवल एक करवट
और फिर सभी समा गया अथाह जल राशि में
सुनामी के एक ही खाते में  एक ही जगह
चढ़ गया सब का नाम
वी वी आई पी के आगमन की तरह
सब कुछ स्थगित /सारे रास्ते बंद !
जल तो जीवन है
फिर यह जल प्रलय
सागर ने समाप्त कर दिया सबका लेखा
पैदा नहीं हुए मर गये  एक साथ
उजड़ी बस्तियां /टूटी नावें और सड़ती लाशें
समंदर को पता था क्या होने वाला है
न कोई पूर्व सुचना न संकेत
भाग्य को भी नहीं बताया अपना कार्यक्रम
सारे पूज्य देवी देवता
लग गए एक ही घाट
किसी ने सागर का कॉलर पकड़कर
नहीं हिम्मत की पूछने की
अपनी ही जान बचा लेता
भाग्य और भगवान् से भी बड़ा हो गया सागर
विज्ञान को जेब में दाल लेता रहा अंगड़ाई
धरती इस विनाश लीला पर
बार - बार कांपी /आज भी सिहर उठती है
सदियों की भूख से छटपटाते
सागर ने निगल लिया लाखों का जीवन
बिना दांतों के कच्चा चबा गया
लौट गया इतना विनाश कर अपनी सीमाओं में
है किसी की हिम्मत ?
आज भी पूछ सके उससे
सैकड़ों सत्यों को झुठलाकर
धरती के ललाट पर लिख दिया उसने
एक कड़वा सत्य
भाग्य से बड़ा झूठ और मौत से बड़ा सच
केवल एक उक्ति के अलावा कुछ नहीं
"कि यही भाग्य में लिखा था "
पश्चाताप के पीछे की तैयारियां
हताशा के बाद की बुनावटें
टूटी नाव के तख्तों में कील ठोंकता मछुहारा
मुंह टाक रहा है विशाल नीले सागर का !
सपने

सपने भी इतने
किसी मालिन की डलिया के फूलों भर
दन्त कथाओं में
राजा - रानी के सवाल जवाब के बीच
सौ योजन से भी दूर
सोने के बालों वाली
चांदी की तरह शफ्फाक़ गोरी
केतकी के फूलों की खुश्बू से महमहाती
गुलाब की पंखुरियों से भी कोमल
राजकुमारी को राक्षस के पंजे से
निकाल लाने का वचन
राजा का राक्षस के हाथों मारे जाने का भय
उससे भी अधिक
 राजकुमारी के सौत बनने का डर
उफ़ ये सपने
रानी के हाथों बिक गए
मालिन की डलिया में रखे
बेले ,गुलाब और गेंदे के फूलों में छिप नहीं पाये
रानी को भय है सौत का
राजकुमारी को राक्षस का
राजा को दोनों के अलावा मौत का
और ये सपने
इसी भय का ताना - बाना बुनते - बुनते
दन्त कथाओं की तरह
झूठ की कब्र में दफ्न हो रहे हैं
अब ये पलकों में नहीं
ज़ेहन में भी नहीं
और न ह्रदय में ही रह पाये
केवल शब्दों में ही ज़िंदा हैं  !

परवाह नहीं

मैंने अपनी परवाह की
भूल गया कि मेरा भी अस्तित्व है
सपनों की परवाह की
और सपने आना बंद हो गए
कविता की परवाह की
तो शब्दों ने भावों साथ छोड़ दिया
परवाह की अपने धैर्य की
और भी आकुल/अशांत हो गया मन
विश्वास की परवाह की
वह भी किसी न किसी बहाने टूटता रहा
अपनी तलाश की परवाह की
तो खुद को तलाशते - तलाशते तुम्हें पाया
सब कुछ छोड़ तुम्हारी परवाह की
और तुम
मेरी परवाह और प्यार से
इतना ऊब गए
कि परवाह के चारो अक्षर
आँसुओं की नदी में ऐसे डूब गए
कि अब मुझे अपने जीवन की भी
कोई परवाह नहीं !
ये खतरनाक दीवारें

दीवारों के कान थे  /सुनती थीं दीवारें
बात पुरानी हो गयी
जब कान लगाए रहतीं थीं दीवारें
खतरनाक हो गई
किसी आदमखोर बाघ से भी ज्यादा
ये खूंख्वार दीवारें बोलने लगीं हैं
ज़िंदाबाद - मुर्दाबाद
करने लगीं हैं जंग का ऐलान
क्रान्ति की झंडाबरदारी
मिटा देने की ललकारें
सड़क पर आ गई हैं दीवारें
आजकल नशे में धुत हैं
जाति के नशे में
धर्म के नशे में
भाषा और रंग के नशे में
परिवारवाद और सत्ता के नशे में
इन्हीं पर चढ़ता है यह नशा
परिवर्तन के नशे में मदहोश दीवारें !
यह शहर की दीवारें गाँव की दीवारों की तरह
सीधी और भोली थीं
 शहर  की सड़कों के कोलतार में अपना -
चेहरा देखकर
तन से ही नहीं मन से भी काली हो गयीं
शरीर पर समय का रंग
सामाजिक /धार्मिक /सियासी
रिक्तता का भी चढ़ा
मन की कालिख डामर की सड़कों से होते हुए
गाँव के कच्चे घरों की कच्ची दीवारों तक
पहुँच कर बदल दी उनकी मानसिकता
ये शहर की दीवारें यज्ञकुंड नहीं
कि जो डालो स्वाहा
उर्वरा भूमि हैं यह
शब्दों के एक -एक बीज से जन्मती हैं
सैकड़ों रक्तबीज
जुनून और उन्माद के बवंडर
द्वेष की आंधियां उठाती
आतंकवादी हो चुकी हैं दीवारें !
इन्हें बचाने की बात सरासर मूर्खता
इनसे बचने का तरीक़ा कहाँ से आये
यातायात का धर्म निभाते
बाएं चलने का अर्थ यह कतई नहीं
कि दुसरा भी निभाएगा
कठिन है इनसे खुद को बचाना
इन्हें उन्माद का स्वर देने वाले
नहीं बचने देंगे इनसे !
पथरा चुकीं हैं दीवारें
बिना किसी सदमे या दुःख के
भीतर का मसाला सूखते ही
निर्मम हो गयीं हैं दीवारें
आग लगातीं किसी के इशारे पर
रक्त बहातीं किसी के कहने पर
कोई तनिक उकसा भर दे
करा देंगी दंगा !
बुद्धि से कुंड हो चुकीं ये विषाक्त दीवारें
दूसरों की मर्ज़ी पर घर से लेकर
देश तक तोड़ने में संलग्न
इन्हें मालुम है  यह भी टूटेंगी एक दिन
लेकिन अभी किसी हाथ
छेनी /हथौड़ा या फावड़ा नहीं है
तभी तो और अधिक खतरनाक हैं
ये खूंख्वार दीवारें !
प्रेम की शक्ति

कहते हैं लोग अक्सर
बहुत शक्ति होती है प्रेम में
पत्थरों को पिघलाने की
लोहे को गलाने की
पहाड़ काटकर दूध की नदियां बहा देने की
मरुस्थल में उद्यान रचा देने की
बर्बर शत्रु को अपना बना लेने की
होता होगा शायद
इतना ताक़तवर प्रेम !
त्याग /बलिदान /करुणा /ममता
प्रेमी को सम्पूर्ण समर्पण
अहम का विसर्जन
प्रेमी के पास कहने के नाम पर
नाम भी शेष नहीं छोड़ते
फिर
पत्थर पिघले न पिघले
लोहा गले न गले
पहाड़ कटे न कटे
दूध की नदियां बहें  न बहें
रेगिस्तान में उद्यान रचे न रचे
शत्रु मित्र बने न बने
वह स्वयं बन जाता है
दीवाना /पागल /विक्षिप्त
साहित्यिक भाषा में दार्शनिक !
छंद का टूट जाना

मेरी कविता के छंद टूट गए तुम
बहुत अच्छा हुआ
तुम्हें तो टूटना ही था
पीड़ाओं का गायन तुम्हारी नियति
स्याह होने लगे थे वे शब्द
जो तुम्हारे पास आते थे
स्वाभाविक था बंजर होती लय की ज़मीन पर
काँटों का उगना
अक्षरों में उगे कांटे
लेखनी में उतरने से पहले चुभते थे ज़ेहन में
ह्रदय की कोशिकाएं कर देते थे ज़ख्मी !
आज जब तुम टूट गए ,तो -
आंसुओं के अक्षरों से बने कंटीले शब्द
पास नहीं आयेंगे  तुम्हारे !
निराश  या दुखी मत हो मेरी कविता के छंद
अपने टूट जाने पर
बेहद ज़रूरी था तुम्हारे जीवन के लिए
तुम्हारा टूट जाना
अब तुम्हारे पास हिरन तो आयेगा
नहीं आयेगी उसकी प्यास
फूलों और तितलियों के रंग तो दिखेंगे
नहीं महसूस होगी उनकी कोमलता
किसी की पीड़ा का बखान तो करोगे
किन्तु नहीं छटपटाएगा तुहारा ह्रदय
धीरे -धीरे मेरी कविता स्वीकार लेगी
तुम्हारे इस नए रूप को
तुम बच जाओगे पीड़ा के अथाह सागर में -
असमय डूबने से
अच्छा हुआ कि तुम टूट गए !


गोमती के किनारे

इधर कई साल बाद देखे
गोमती के किनारे
पानी से निकाला गया  बदबूदार सड़ा कचरा
पशु  - पक्षियों  के साथ मनुष्यों की भी
बजबजाती सड़ती लाशें
जलकुम्भी और जाने क्या -क्या
एक ओर  शहर का कूड़ा फेंकते
नगर पालिका के ट्रक
सीवर लाइनों से निकल कर आते
गंदे नाले उल्टी कर रहे हैं
किनारे बैठ अपनी काया की गंदगी से
निजात पाते लोग
गोमती के एक किनारे
दूसरे किनारे पर लगा हुआ मेला
सजे -धजे शहरियों की चहल - पहल
खूबसूरत शामियाने
विद्युत् की सतरंगी झालरें
व्यवस्था के अनेक उद्योग
एक नदी दो किनारे
दोनों का अपना - अपना भाग्य
शायद मैं भी एक नदी हूँ गोमती की तरह !
मेरा वह किनारा जिसे देखते हैं  लोग
वहाँ मेरे यश -ऐश्वर्य का मेला है
दूसरे तट पर
खुद अपनी सड़ांध में छटपटाता
मेरा अपना वज़ूद
जिसे हर आदमी देखकर अनदेखा करता
नाक पर रुमाल रखकर
निकल जाता
मेरा अस्तित्व बंट गया है
इन दो तटों में
और धारा का पानी न चाहते हुए भी
हो रहा है विषैला !




 से  

गोमती के किनारे

 कई साल बाद देखा
गोमती नदी के दोनों किनारों को
एक किनारे
पानी से निकाला गया सडा बदबूदार कचरा
मनुष्यों के साथ पशु - पक्षियोँ की
बजबजाती सड़ती लाशें
जलकुम्भी और सिवार का नरक
शहर का कूड़ा गिराते
नगरपालिका के ट्रक
सीवर लाइनों से निकल गोमती के
वक्ष में समाते गंदे नाले
उकडू बैठ अपनी काया की गंदगी से
निजात पाते लोग
दूसरे किनारे
लगा शहर की सभ्यता और तहज़ीब का मेला
रंग  -बिरंगे शानदार शामियाने
सजे -धजे /लक -दक शहरियों के झुण्ड
विद्युत् की  सतरंगी झालरें
तमीज़ और संस्कारों की झक्कास दुकानें
दोनों किनारों का अपना - अपना भाग्य !
शायद मैं भी इसी नदी की तरह हूँ
मेरे भी एक किनारे मेला है
मेरे नाम का /पद का /पैसे का
मेरी वाणीके प्रभाव का
मेरे तथाकथित विराट व्यक्तित्व का
सम्बन्धों के मायाजाल का
किन्तु दूसरा तट
 छटपटाता अपनी सड़ांध से
टूटते विश्वासों और अजाने पापों से
स्वार्थ और लिप्सा की बदबू से
बजबजाती कुटिल कामनाओं से
जिसे देख हर आदमी नाक पर रुमाल रख
अनदेखा कर निकल जाता है चुप चाप
मेरा समूचा अस्तित्व बंटा है
इन दो किनारों में
और मध्य में धारा का पानी
पट रहा है
अवांछित - अयाचित कचरे से !
बेचारा दरख़्त

लग -भग ठूंठ हो चुका दरख़्त
रेगिस्तान के सीने पर
न कभी हवा न पानी
जीने के संकल्प के सहारे
किसी तरह बड़ा हुआ
कभी - कभी लू के थपेड़े ढेर सारी रेत
उड़ेल देते उसकी काया पर
लेकिन एक दिन अचानक
ठंढी आंधी का एक तूफ़ान
कई नदियों भर पानी समेटे आ गया उधर
ऐसी शीतल हवा ,इतना अधिक पानी
पहले नहीं देखा था कभी उसने
कितनी कोंपलें निकल आयीं एक दिन में ही
झूम - झूम उठा
हरियाली की उमंग जाग उठी  सूखे तने में
धमनियों में बहने लगा जीवन !
फिर देखते ही देखते
ठहर गयी आंधी
थम गया तूफ़ान
रुक गयीं पानी की बौछारें
बहुत कुछ मिला दरख्त को
फिर भी उदास है वह
हरा भरा रखने के लिए पानी
तरोताज़ा रखने के लिए हवा
उपलब्ध है उसे
कम नहीं होती उदासी दरख्त की
शायद अभ्यस्त हो चुका है वह
नदियों पानी समेटे ठंढी आंधी के उस तूफ़ान का
जो उसे ज़िंदा रहने की क़सम देकर ऐसा गया
फिर कभी नहीं लौटा !
तुम्हारे उच्छ्वास

हर तरफ पसरे हुए सन्नाटे
तुम्हें महसूस करने से लेकर
तुम्हारे आस - पास न होने की दारुण यात्रा में
कई बार टूट जाते हैं
पुष्पक विमान के अदृश्य पंख
किसी अरण्य भूमि पर घायल जटायु की तरह
लहूलुहान होकर गिर जाता है मन
तब तुम्हारे भेजे गए उच्छ्वास
रहस्यमय सपनो की तरह
अधमुंदी आँखों और बोझिल साँसों में
बरबस समा जाते हैं !
दे जाते हैं यह अहसास
कहीं न कहीं छद्म व्यामोह घिरे
स्वनिर्मित चक्रव्यूह में फंसे
तुम्हारे प्रेम के अभिमन्यु को
मेरे समीप आने तक तोड़ने हैं
सात द्वार
जिन्हें रचाने के बाद
स्वयं नहीं देख पाया
और मेरा मन उन्हीं उच्छ्वासों की
स्वप्न वल्लरी में लिपट -लिपट कर
तुम्हें अपने करीब बहुत करीब के अहसास
को सच साबित करने पर तुला है !
गौरैया का घोंसला

मेरे शयन कक्ष  के एक बड़े चित्र के पीछे
एक गौरैया ने घोंसला बनाया
मुझे उस घोंसले का आभास
कभी सफाई करते
छत और दीवारों के किनारे जाले  हटाते
रात -रात भर नींद न आने पर तस्वीरें ताकते
खासकर वह तस्वीर जिसके पीछे
गौरैया का घोंसला था
कभी नहीं हुआ !
वह तस्वीर जिसमें कभी खुद की
कभी तुम्हारी /कभी दोनों की
छवियाँ देखता था
मेरे एकाकीपन  का अवलम्ब
ट्यूबलाइट की दूधिया रोशनी में
फिर लाइट बंद करने पर
कभी नहीं दिखा घोंसला !
गौरैया चहचहाती ज़रूर थी
आना -जाना। बैठना इतना भर
एक दिन तस्वीर के पीछे सुनाई पड़ी
चहचहाहट गौरैया के नन्हे शिशुओं की
हतप्रभ था मैं
क्या हो गया धीरे -धीरे अनजाने में
अब न तो हटा सकता हूँ यह तस्वीर
न इसके पीछे से घोंसला
अब मुझे तस्वीर में दिखाई पड़ते हैं
तुम्हारी जगह
गौरैया के छोटे -छोटे बच्चे
और मेरा अकेलापन !

Sunday 30 March 2014

ययाति का गुनाह
एक थी शर्मिष्ठा
रूप गर्विता , सम्मोहन सिद्धा
निकलकर पुराणों के पन्नों से
तोड़कर शब्दों का रेशमी जाल
ययाति की चिर तृषा पर टूटकर बरस गयी
एक बदली की  तरह
टूट गया देवयानी का दंभ
समर्पण और प्रेम की  सुकुमार साधना के सुकोमल आघात से
पागल हो गया ययाति
तन से लेकर मन तक
कौन जानता था  पुराणजीवी शर्मिष्ठा
इतिहास में चित्रलेखा के किरदार में है
चरित्र के भीतर चिंतन का विस्फोट
प्रीतिकाम्या की वह यात्रा
बदल गयी अमृता के रूप में
अपने साहिर के जज़बातों की हथेली पर
अंगूठे का निशान लगाती
रसीदी टिकट पर इमरोज़ का चित्र उकेरती
स्त्री का सत्य ,प्रेम का सत्य
स्वाधीनता का सत्य
सीमाओं का सत्य
शब्द-शब्द  टांकती रही 
बाहर था सभी कुछ ठीक- ठाक
कोयल को कटाई अंदेशा नहीं था
मौसम अपने तेवर बदलेगा
हवाएं बबंडर बन जाएंगी
आत्म प्रक्षालन का दुश्चक्र
समझौते की परिणिति में
गड्ड-मड्ड  हो जायेंगे इतने चरित्र
स्वार्थ और सुविधा की  दहलीज़ पर
उभरेगा नया  बिम्ब
अभिनय / अभिव्यक्ति के विविध रंगों से
एक अन्य पात्रा 'जूली'  का
नाम लेते ही  आधुनिकता पसार दे पाँव
चरित्र का अर्थ
ऐन -केन प्रकारेण स्वार्थ - सिद्धि
तन , मन तो दूर आत्मा तक का ज़िक्र नहीं
बाज़ार में बाज़ार का होना पड़ता है।
जहां हर मोहक छवि
कभी शर्मिष्ठा , कभी चित्रलेखा
कभी अमृता और अंततः जूली दीख पड़ती है
कंगाल हो गया ययाति
वह चाहे तो खरीद सकता है
अपनी फटी हुई जेब के बराबर कोई किरदार
किन्तु उसका कोई खरीदार नहीं
अभी भी हर पात्र की  व्याख्या
हर चरित्र की पैरवी
समय  ने दोषी ठहरा दिया ययाति को
कटघरे में खड़ा ययाति
अदालत की दीवारें  नाच रहीं हैं
पता नहीं शर्मिष्ठा और जूली के बीच
और कितने पात्र सर उठा दें
योर ऑनर ! दोषी है ययाति
प्रेम, विश्वास और समर्पण का
इसे दे दीजिए सज़ा
अंतिम सांस तक तड़पने और छटपटाने की।



                                   संक्षिप्त जीवन परिचय 

डॉ नरेश कात्यायन
  1. अध्यक्ष- अखिल भारतीय मंचीय कवि पीठ 
  2. संयोजक - अंतरराष्ट्रीय हिंदी कविता समारोह 
  3. प्रधान सम्पादक -'उपलब्धि ' साहित्यिक वार्षिकी 
  4. प्रकाशित एवं पुरस्कृत साहित्य
    1- कोहरे में डूबा शहर (गीत संग्रह )
    2- महात्मा जटायु (खंड काव्य )
    3- सोंटा दास- लंगोटा दास तथा मकान गवाह है (नुक्कड़ नाटक )
    4- वर्णमाला की दिवाली (गीत संग्रह )
    5-
     कबूतर अब नहीं रोता (मुक्त छंद कविता संग्रह )
  5. प्रकाश्य -
     * लिख हथेली पे मेरा नाम (ग़ज़ल संग्रह ) सहित कविता की  10 पुस्तकें। 
  6. देश- विदेश की  शताधिक संस्थाओं द्वारा  सम्मानित एवं अभिनंदित। 
  7. विगत 35 वर्षों से देश-विदेश के हज़ारों कवि  सम्मेलनों , आकाशवाणी केन्द्रों एवं विभिन्न चैनलों से काव्यपाठ तथा संचालन। 
  8. उ० प्र० विधान सभा में कार्यरत। 
  9. संपर्क- 201, राजकीय कॉलोनी ,सेक्टर-21 ,
               इंदिरा नगर , लखनऊ -16
               उत्तर प्रदेश। 
  10. ब्लॉग-kavyasarovar.blogspot.com
  11. ईमेल -dr.nareshkatyayan@gmail.com
              nareshkatyayan@yahoo.com 
  12. मोबाइल - +91 8004906243  

Saturday 29 March 2014

अंतरराष्ट्रीय  हिंदी कविता समारोह २०१४
अनुमानित व्यय विवरण
प्रकाशन
१-उपलब्धि -२०१४ -१००० पत्रिकाएं x १२०  = 1,20,000/-
२-सम्मान पत्रिका - १००० x ५५ = 55,000/-
३-निमंत्रण पत्र -१००० x २५ = 25,000/-



१ - सभागार का किराया  (दिनांक 15  एवं 16  नवंबर ) - दो दिन = 58,000/-
२-  अतिथि आवास (30  कक्ष , 4  दिन ) = 1200 X 120 =1,44,000/-
३-  आवासों पर भोजन एवं जलपान  = 50,000/-
४-  सभागार पर भोजन ,चाय एवं पानी = 1200 X 200=2,40,000 /-
५ - पुष्प सज्जा सभागार = 20,000/- 

Monday 24 March 2014

 टूट गया हिमालय
आखिर टूट गया हिमालय
बहुत पहले ही दरक चुका था
नेपोलियन /मुसोलिनी /नीरो और हिटलर,
सभी टूटे, कैसे बचा रहता हिमालय
कितनी आग पी  चुके थे पत्थर
कितना पानी सोख चुकीं थीं शिलायें
हर साल बर्फ कि चादर पड़ी
हर साल कोई न कोई नयी नदी
हिमालय का कलेजा फाड़ बह निकली
सभ्यताएं मैदानों में खेलती रहीं
उनकी लिप्साओं के देवदारु
उगते रहे हिमालय के वक्ष पर
सभ्यताएं  बिखरी और बदलीं भी
टूट गए उनके गुमानों के गुम्बद
टूट गयीं  बादलों में पड़ी बिजली की अगणित हथकड़ियां
भीतर -भीतर दहा ,क्या-क्या नहीं सहा
पर चुप रहा हिमालय
खरगोश ने हिमालय कि सिसकी सुनी
दुबक गया झाड़ में
हज़ारों लाखों बार हवा ने
हिमालय के सीने से निकलता धुंआ। छुआ
खिसक गयी चुपचाप नहीं करायी  मुनादी
कानों कान खबर तक नहीं हुई
दहाड़ते शेर चिंघाड़ते हाथी
हुआ-हुआ अलापते सियार
हिमालय के कान फोड़ते रहे
रौंदते रहे वक्षस्थल
अंदाजा तो  भालू को भी नहीं था
हिमालय के टूटने पर
वरना पहाड़ियों के मोह पास में नहीं फंसता
दूर दराज़ घरों के छप्परों से उठता धुंआ
आश्वस्ति नहीं टूट सकता इतना बड़ा पहाड़
गंगा यमुना जैसी सैकड़ों नदियां इसकी अमानत
इतना पानीदार
पानी के छकड़े लादे बादलों से उतार लेता पानी
समंदर तक को ललकारता।
कैसे टूट सकता था हिमालय
आदमी तो बन जाता है बिछौना
कभी मखमल का
कभी टाट का
फिर भी स्वाभिमान का दम भरता
मिट जाएगा पर झुकेगा नहीं
हिमालय टूट कर भी नहीं मरा
टूटी शिलाएं  किसी का बिस्तर नहीं बनी
आखिर  ये टुटा कैसे
कौन पैदा हो गया चंद्रकांता का वीरसिंह
तोड़ डाला तिलिस्म की  तरह।
दरक तो उस दिन गया
जब गंगा ने मैदान में खुद को पुजवाया
पर तटस्थ रही हिमालय कि आलोचना पर।
शायद तब
जब गलबहियां डालें बदल और बदली
हिमालय को अश्पृश्य समझ कर लौट गए
या उस वरस
जब पेड़ों से चिपके किसी संत को
हलाक़  कर दिया था वनमाफियाओं   ने।
अब पूरी तरह टूट गया हिमालय
आकाश तो ज़माने का दुश्मन था
आग तक बरसा चूका था
धरती ने बस एक बार आशंका की दृष्टि से देखा
भरभरा कर ढह गया हिमालय
कच्चा मकान भी नहीं ढहता ऐसे ही
अकल्पनीय ढंग से बिखरा हिमालय
किसी का कुछ नहीं बिगड़ा
कहीं कोई आँख नहीं भीगी
एक परिंदा  तक नहीं फड़फड़ाया
किसी नदी में नहीं आया उबाल
सबकुछ यथावत
केवल हिमालय ही नहीं रहा।

Sunday 23 March 2014

कोयलें कहीं गाती हैं

आम के पेड़ के तले  ,खेत की  मेड़  पर बैठ कर
आज फिर बिरहा गा रहा है सोमनाथ
दर्द भरी आवाज़ में टूट कर बिखर जाने की भावुकता
हवा चटख रही थी
आम का पत्ता पत्ता कांप उठे ,ऐसे सुर
लेकिन नहीं निकली पत्तों के झुरमुठ से वह कोयल 
जो धुर सवेरे करती थी इंतज़ार सोमनाथ का
पेड़ के तले  सोमनाथ ने जबसे बिरहा गाना शुरू किया था
सुर कि दीवानी कोयल
सोमनाथ की आवाज़ में घोल दे अपना पंचम सुर
रूह से रूह और मन से मन मिला 
तड़प से तड़प और बिरहा से कुहू-कुहू
फसल को रामभरोसे  छोड़
कहाँ गया था सोमनाथ
नाराज़ थी कोयल पता नहीं था उसे
बहुत बीमार था सोमनाथ
बचपन/जवानी तक लगे बहुत रोग
आज  घाव हरे हो गए 
छूट गया बिरहा
खेत पर जाए तो आम के नीचे बैठ
सूनी आँखों से डाल- डाल , पत्ती - पत्ती ताकता रहे
कभी पलकें भीग जाएँ
कभी आत्मा हो जाए लहू लुहान
नहीं कहा  किसी ने सोमनाथ बिरहा गाओ
मेड़ पर बैठे बैठे उसे इंतज़ार था कोयल का ,कुहू कुहू का
शायद कहीं से प्रकट हो गा उठे
मिल जाए बिरहा को संजीवनी
पता नहीं आम के किस कोटर में थी कोयल
बीत गयी छमाही
भीतर ही भीतर बहुत रोया सोमनाथ
न बिरहा न कोयल
ज़िन्दगी कि सारी  ताकत समेट
लहू लहू की बूँद बूँद शक्ति निचोड़
सीने की  आग गले में उतार
आज बिरहा गा रहा है सोमनाथ
आज नहीं निकली कोयल
 धुआँ धूआँ हो गया आसमान
धूल-धूल हो गयी धरती /मुरझा गयीं फसलें
सोमनाथ कि बुझी बुझी आँखों की  तरह
नहीं निकली फिर भी कोयल
अब उसे केवल बिरहा का सुर लुभा रहा था
उसके पीछे की  तड़प
रूह का आलिंगन और आत्मा का चीत्कार नहीं
मन से मन के  मिलन का  त्योहार
सोमनाथ की  वेदना भी नहीं
बिरहा के सुर के सहारे कितने बंधन बंध गये
खेत कि मेड़ और आम के पेड़ से
सुर क्या ठहरे
पी गए आत्मा का अमृत
प्रेम का पियूष /बेचैनी कि बूँद बूँद मदिरा
इतने महान हो गए सुर
छोटी हो गयी सोमनाथ की  औकात
याद नहीं रहा कुहू कुहू को बिरहा का आलाप
बिरहे के अवरोह के अंतिम अक्षर से
लिपट गयी अंतिम सांस
कान में एक बार पड़  जाती कुहू कुहू
मरता नहीं सोमनाथ,जी जाता बिरहा
कोयल भी कब तक याद रखती कुहू कुहू
आम की  जाने किस कोटर में
कोयल अपने बच्चों को बता रही थी
राम कसम मैंने कभी नहीं गाया
कहीं कोयलें भी गाती हैं ?
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कबूतर अब नहीं रोता

                                                                                                                                                                    आखिर कितना रोता वह्  कबूतर  
तिनके - तिनके से बनाया घोंसला                                           दानों के साथ -साथ  चोंच से प्यार उड़ेल कर पाले बच्चे                                                 बाज ने कर लिए उदरस्थ                                                   गिरा दिया घोंसला                                                                                                     टूट - टूट कर रोया कबूतर |

 बहुत शांत है अब वह                                                                                      गलती थी तो उसी की                                                       नहीं बनाना था उसे पेड़ पर घोंसला                                                                         पुरानी हवेली / मंदिर के खंडहर में/ किसी अधपेटे कुंएं की खोहों में                                   कहीं भी बना लेता अपना घर                                                                                 उसके वंश  की नियमावली में वर्जित था                                       खुली हवा में घोंसला बनाना                                                                                         रूढ़ियों -परम्पराओं से बगावत कर                                                                              आम की बौराई डाल के पत्तों के बीच                                         रच लिया अपना आशियाना                                                                                    कतई  नहीं सोचा उसने उस  वक़त  
कि यह हवा आम की बौराई डाल /हरे -हरे पत्ते  
आने वाली विपदा से नहीं बचा पाएंगे 
रह जायेंगे केवल साक्षी बनकर
कबूतर को यह अफ़सोस नहीं है ,
अपने आश्रयदाता के तटस्थ रहने का /घोंसला बनाने का
एक ही गलती की  उसने
खुली हवा की  चाहत में इतना पागल नहीं होना था उसे
कि वह ऐसे घोसले में
नयी पीढ़ी का सपना भी देख डाले
शारीरिक और मानसिक स्वंत्रता
स्वयं उसी के लिए थी उपयुक्त
उन बच्चों के लिए बिलकुल नहीं
जो उसके सपनों की तरह थे सुकुमार
जिन्हे परम्परागत शत्रुता निभाते रूढ़ियों के बाज़ में
असमय ही अपना भोजन बना लिया
अपनी उस गलती के लिए सोचता है कबूतर
आज़ादी का जूनून /उल्टीधार में तैरने का संकल्प
लेता ही है कुछ बलिदान
अब नहीं रोता कबूतर।