लव का रोष
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सघन संताप में दहकर हुईं भूमिष्ठ वैदेही।
असह चिर वेदना सहकर हुईं भूमिष्ठ वैदेही।।
बिलख कर रह गए लव-कुश ,तड़प कर रह गए राघव।
नहीं अब तक सहा था ,आज वह भी सह गए राघव।।
खड़ी व्याकुल सभी माएँ ,व्यथित परिजन हुए सारे।
अवध में मच गया कुहराम , आकुल जन हुए सारे।।
सुतों को देख कर सम्मुख , विकल राघव बढे आगे।
पिता की देख विह्वलता कदम दो लव बढे आगे ।।
ह्रदय में फट रहे थे , रोष के आक्रोश के गोले।
ठिठक कर लव अवधपति से , तनिक आक्रोश में बोले।।
कहा लव ने अवध के राज राजेश्वर ठहर जाओ।
ओ दिनकर वंश के आलोकमय दिनकर ठहर जाओ।।
हमें इन प्रेम विह्वल बाहुओं में ले सकोगे तुम।
हमारे कुछ सवालों के , जो उत्तर दे सकोगे तुम।।
जाली है आज सच की अस्मिता जलते उजालों में।
अवधपति घिर गए हो आज बनवासी सवालों में।।
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना।
अगर भगवन हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना।।
अगर पति हो , पिता हो ,याकि राजा हो तो उत्तर दो।
तुम्हारी न्यायनिष्ठा का तकाज़ा हो तो उत्तर दो।।
सुना है आप जग में एक , मर्यादा की मूरत हो।
सुना है ज्ञान की और प्रेम की अविभाज्य सूरत हो।।
तुम्हारे वास्ते ही , सुखों का आकाश छोड़ा था।
लिया बनवास पतिव्रत धर्म पर रनिवास छोड़ा था।।
हज़ारों दुःख सहे पर आपको अविकल नहीं छोड़ा।
रहीं लंका में लेकिन प्रीती का सम्बल नहीं छोड़ा।।
परीक्षा अग्नि की ली आपने किसको दिखाने को।
बताना चाहते थे आप शायद इस ज़माने को।।
अपावन पात्र को अपने ह्रदय से वार नहीं सकते।
ये रघुवंशी किसी पर यूँ भरोसा कर नहीं सकते।।
परीक्षा वह भी माता ने चिता पर बैठ कर दी थी।
तुम्हारे प्रति समर्पण में बताओ क्या कमी की थी।।
कोई भी अंश कालिख का कहीं लगने न पाया था।
मेरी माता ने अपना धर्म हंस हंसकर निभाया था।।
हिमालय त्याग का लेकिन खड़ा था चाह के पीछे।
उन्हें छोड़ा गया राजन महज़ अफवाह के पीछे।।
ठगा विश्वास राघव बोलिए तो किस हताशा में।
सचाई को मिला बनवास किस यश की पिपाशा में।।
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना।
अगर भगवन हो तुम तो , हमें कुछ भी नहीं कहना।।
तुम्हारे वंश की विरुदावली में ढल रहे थे हम।
तुम्हारे अंश थे माँ के उदर में पल रहे थे हम।।
नहीं सोचा कि ऐसे में कहाँ जाएगी मेरी माँ।
भयानक जंगलों में कैसे रह पायेगी मेरी माँ।।
नहीं सोचा क़ि पीड़ा का कलश इक रोज फूटेगा।
मेरी माता के भी माता - पिता पर वज्र टूटेगा।।
सत्य का सिंह मृगछौना हुआ सम्राट के आगे।
तुम्हारा पति बहुत बौना हुआ सम्राट के आगे।।
सात जन्मों का बंधन तोड़ देना ही उचित समझा।
मेरी माँ को अकेला छोड़ देना ही उचित समझा।।
नहीं हम जान पाये आज तक यह आप कैसे हैं
अभागा कर दिया बच्चों को अपने , बाप कैसे हैं
आपके प्यार के पंछी ने भी उड़कर नहीं देखा
हमारा हल क्या है आपने मुड़कर नहीं देखा
भुजाएं खोलकर आते हो सीने से लगाने को
हमें स्वीकार करने को हमें अपना बनाने को
हमारी माँ को ले डूबा ये कैसा प्यार है राजन ?
सुतों पर आपका अब कौन सा अधिकार है राजन ?
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवन हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
हमें मालूम है विरहाग्नि में खुद भी दहे होंगे
तुम्हारे नेत्रों से अश्रु के झरने बहे होंगे
कभी भी चैन इक पल को नहीं , तुमको मिला होगा
ये आभायुक्त मुख मंडल न फूलों सा खिला होगा
गहनतम पीर के आंसू वो पश्चाताप के आंसू
मगर बेकार ही सारे गए हैं आप के आंसू
बड़े सम्राट पर हो अकिंचन दे नहीं सकते
पुनः हमको हमारा बीता बचपन दे नहीं सकते
हमें पाला है कुटियों ने , हमें पाला है जंगल ने
हमें पाला है ऋषियों ने , बचाया माँ के आँचल ने
बहुत मजबूर होंगे आप ,हम मजबूर कैसे हों
हम अपने पालने वालों से राजन दूर कैसे हों ?
नहीं माता रहीं तो सर पे ऋषि का हाथ बाकी है
हमारे साथ में बनवासियों का साथ बाकी है
हमारी दाढ़ियाँ माँ के विरह को सह न पाती थीं
मगर सम्राट के आगे विवश थीं , कह न पातीं थीं
मेरे पितृव्य तीनो ,आपकी आज्ञा से हारे थे
एक सम्राट के आगे सभी अनुचर बिचारे थे
कुलगुरु और सचिव सब आपकी निष्ठां में पलते हैं
सभी धर्माधिकारी आपके अनुसार चलते हैं
ये कैसा युद्ध जिसमें एक भी मस्तक नहीं फूटा
यहां दरबार में आक्रोश का स्वर तक नहीं फूटा
जिया जो माँ ने वह संतोष ,सीने में लिए हैं हम
यहां का पददलित आक्रोश सीने में लिए हैं हम
हमारे वक्ष में तूफ़ान है कैसे निकालोगे
अवध के नाथ इस आक्रोश को कैसे सम्हालोगे ?
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
यज्ञ हयमेघ जो संकल्प कर तुमने रचाया है
यहां आसन पे माँ की स्वर्णप्रतिमा को बिठाया है
तुम्हारे ज्ञान ने ही फिर तुम्हें सिखला दिया होगा
वो सोने के हिरन का आपने बदला दिया होगा
वहां अन्याय है यदि न्याय में होती बहुत देरी
लो देखो यज्ञ की पूर्णाहुती में माँ गयी मेरी
पिता हैं राम मेरे मेरी माता ने बताया था
हमारे मन में भी बहुधा ये सुन्दर स्वप्न आया था
पिता से प्यार करना ,और पिता की गोद में रहना
पिता से तोतली भाषा में अपने चित्त की कहना
मगर इन जागते सपनों का बोझा सह नहीं पाया
इन आँखों में कोई सपना , बहुत दिन रह नहीं पाया
हैं अपने दर्द में बहते उसी धारा में बहने दो
अब इन बनवासियों पर राजवंशी प्यार रहने दो
हमारी माँ ने दुःख झेले मगर कुछ कह नहीं पाया
भार इतनी परीक्षाओं का लेकिन सह नहीं पाया
यहां फिर से परीक्षा अग्नि वाली दी नहीं माँ ने
जो गलती कर चुकीं थीं और गलती की नहीं माँ ने
चढ़े निशि दिन कसौटी पर जहां सम्मान नारी का
तनिक अफवाह पर होता जहां अपमान नारी का
वहां यदि माँ हमारी , रंगमहलों में चली जाती
अगर अपने पती के संग महलों में चली जाती
तो नारी जाति के मस्तक पे कालिख लग गयी होती
खुली फाँसी पे नारी अस्मिता ही टंग गयी होती
किया उत्सर्ग खुद का , मान नारी का बढ़ाया है
तिलक नारीत्व के मस्तक पे माता ने लगाया है
धारा में पैठ कर माँ ने बचाया मान नारी का
पुरुष के सामने रक्खा सहज सम्मान नारी का
असह पीड़ा ह्रदय में , किन्तु यह मस्तक तना तो है
मेरा जीवन उसी माता के जीवन से बना तो है
नहीं जो कर सका कोई , किया है अम्ब सीता ने
ये उत्तर सारी दुनिया को दिया है अम्ब सीता ने
कि नारी पुरुष को जनती तो है पर जानती भी है
उसे अपना सभी कुछ हाँ सभी कुछ मानती भी है
मगर स्त्रीत्व पर जब भी कुठाराघात होता है
कुलिश पल भर में तो कोमल सरल जलजात होता है
सजा दी आपने माँ को सजा वह सह गयी राजन
पतिव्रत धर्म वाले पींजरे में रह गयी राजन
दिया दंड माँ ने वह तुम्हें प्रतिपल रुलायेगा
तुम्हें शिव का धनुष टूटा हुआ हर पल सताएगा
हुआ है और न होगा ,ऐसा पति श्रीराम से पहले
सिया का नाम आएगा तुम्हारे नाम से पहले
बताओ किस तरह हम माँ का आँचल छोड़ दें राघव
जहां बचपन गुजारा है वो जंगल छोड़ दें राघव
हमारे शब्द घायल हैं ,दहकती पीर जैसे हैं
क्षमा करना हमारे प्रश्न तीखे तीर जैसे हैं
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
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सघन संताप में दहकर हुईं भूमिष्ठ वैदेही।
असह चिर वेदना सहकर हुईं भूमिष्ठ वैदेही।।
बिलख कर रह गए लव-कुश ,तड़प कर रह गए राघव।
नहीं अब तक सहा था ,आज वह भी सह गए राघव।।
खड़ी व्याकुल सभी माएँ ,व्यथित परिजन हुए सारे।
अवध में मच गया कुहराम , आकुल जन हुए सारे।।
सुतों को देख कर सम्मुख , विकल राघव बढे आगे।
पिता की देख विह्वलता कदम दो लव बढे आगे ।।
ह्रदय में फट रहे थे , रोष के आक्रोश के गोले।
ठिठक कर लव अवधपति से , तनिक आक्रोश में बोले।।
कहा लव ने अवध के राज राजेश्वर ठहर जाओ।
ओ दिनकर वंश के आलोकमय दिनकर ठहर जाओ।।
हमें इन प्रेम विह्वल बाहुओं में ले सकोगे तुम।
हमारे कुछ सवालों के , जो उत्तर दे सकोगे तुम।।
जाली है आज सच की अस्मिता जलते उजालों में।
अवधपति घिर गए हो आज बनवासी सवालों में।।
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना।
अगर भगवन हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना।।
अगर पति हो , पिता हो ,याकि राजा हो तो उत्तर दो।
तुम्हारी न्यायनिष्ठा का तकाज़ा हो तो उत्तर दो।।
सुना है आप जग में एक , मर्यादा की मूरत हो।
सुना है ज्ञान की और प्रेम की अविभाज्य सूरत हो।।
तुम्हारे वास्ते ही , सुखों का आकाश छोड़ा था।
लिया बनवास पतिव्रत धर्म पर रनिवास छोड़ा था।।
हज़ारों दुःख सहे पर आपको अविकल नहीं छोड़ा।
रहीं लंका में लेकिन प्रीती का सम्बल नहीं छोड़ा।।
परीक्षा अग्नि की ली आपने किसको दिखाने को।
बताना चाहते थे आप शायद इस ज़माने को।।
अपावन पात्र को अपने ह्रदय से वार नहीं सकते।
ये रघुवंशी किसी पर यूँ भरोसा कर नहीं सकते।।
परीक्षा वह भी माता ने चिता पर बैठ कर दी थी।
तुम्हारे प्रति समर्पण में बताओ क्या कमी की थी।।
कोई भी अंश कालिख का कहीं लगने न पाया था।
मेरी माता ने अपना धर्म हंस हंसकर निभाया था।।
हिमालय त्याग का लेकिन खड़ा था चाह के पीछे।
उन्हें छोड़ा गया राजन महज़ अफवाह के पीछे।।
ठगा विश्वास राघव बोलिए तो किस हताशा में।
सचाई को मिला बनवास किस यश की पिपाशा में।।
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना।
अगर भगवन हो तुम तो , हमें कुछ भी नहीं कहना।।
तुम्हारे वंश की विरुदावली में ढल रहे थे हम।
तुम्हारे अंश थे माँ के उदर में पल रहे थे हम।।
नहीं सोचा कि ऐसे में कहाँ जाएगी मेरी माँ।
भयानक जंगलों में कैसे रह पायेगी मेरी माँ।।
नहीं सोचा क़ि पीड़ा का कलश इक रोज फूटेगा।
मेरी माता के भी माता - पिता पर वज्र टूटेगा।।
सत्य का सिंह मृगछौना हुआ सम्राट के आगे।
तुम्हारा पति बहुत बौना हुआ सम्राट के आगे।।
सात जन्मों का बंधन तोड़ देना ही उचित समझा।
मेरी माँ को अकेला छोड़ देना ही उचित समझा।।
नहीं हम जान पाये आज तक यह आप कैसे हैं
अभागा कर दिया बच्चों को अपने , बाप कैसे हैं
आपके प्यार के पंछी ने भी उड़कर नहीं देखा
हमारा हल क्या है आपने मुड़कर नहीं देखा
भुजाएं खोलकर आते हो सीने से लगाने को
हमें स्वीकार करने को हमें अपना बनाने को
हमारी माँ को ले डूबा ये कैसा प्यार है राजन ?
सुतों पर आपका अब कौन सा अधिकार है राजन ?
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवन हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
हमें मालूम है विरहाग्नि में खुद भी दहे होंगे
तुम्हारे नेत्रों से अश्रु के झरने बहे होंगे
कभी भी चैन इक पल को नहीं , तुमको मिला होगा
ये आभायुक्त मुख मंडल न फूलों सा खिला होगा
गहनतम पीर के आंसू वो पश्चाताप के आंसू
मगर बेकार ही सारे गए हैं आप के आंसू
बड़े सम्राट पर हो अकिंचन दे नहीं सकते
पुनः हमको हमारा बीता बचपन दे नहीं सकते
हमें पाला है कुटियों ने , हमें पाला है जंगल ने
हमें पाला है ऋषियों ने , बचाया माँ के आँचल ने
बहुत मजबूर होंगे आप ,हम मजबूर कैसे हों
हम अपने पालने वालों से राजन दूर कैसे हों ?
नहीं माता रहीं तो सर पे ऋषि का हाथ बाकी है
हमारे साथ में बनवासियों का साथ बाकी है
हमारी दाढ़ियाँ माँ के विरह को सह न पाती थीं
मगर सम्राट के आगे विवश थीं , कह न पातीं थीं
मेरे पितृव्य तीनो ,आपकी आज्ञा से हारे थे
एक सम्राट के आगे सभी अनुचर बिचारे थे
कुलगुरु और सचिव सब आपकी निष्ठां में पलते हैं
सभी धर्माधिकारी आपके अनुसार चलते हैं
ये कैसा युद्ध जिसमें एक भी मस्तक नहीं फूटा
यहां दरबार में आक्रोश का स्वर तक नहीं फूटा
जिया जो माँ ने वह संतोष ,सीने में लिए हैं हम
यहां का पददलित आक्रोश सीने में लिए हैं हम
हमारे वक्ष में तूफ़ान है कैसे निकालोगे
अवध के नाथ इस आक्रोश को कैसे सम्हालोगे ?
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
यज्ञ हयमेघ जो संकल्प कर तुमने रचाया है
यहां आसन पे माँ की स्वर्णप्रतिमा को बिठाया है
तुम्हारे ज्ञान ने ही फिर तुम्हें सिखला दिया होगा
वो सोने के हिरन का आपने बदला दिया होगा
वहां अन्याय है यदि न्याय में होती बहुत देरी
लो देखो यज्ञ की पूर्णाहुती में माँ गयी मेरी
पिता हैं राम मेरे मेरी माता ने बताया था
हमारे मन में भी बहुधा ये सुन्दर स्वप्न आया था
पिता से प्यार करना ,और पिता की गोद में रहना
पिता से तोतली भाषा में अपने चित्त की कहना
मगर इन जागते सपनों का बोझा सह नहीं पाया
इन आँखों में कोई सपना , बहुत दिन रह नहीं पाया
हैं अपने दर्द में बहते उसी धारा में बहने दो
अब इन बनवासियों पर राजवंशी प्यार रहने दो
हमारी माँ ने दुःख झेले मगर कुछ कह नहीं पाया
भार इतनी परीक्षाओं का लेकिन सह नहीं पाया
यहां फिर से परीक्षा अग्नि वाली दी नहीं माँ ने
जो गलती कर चुकीं थीं और गलती की नहीं माँ ने
चढ़े निशि दिन कसौटी पर जहां सम्मान नारी का
तनिक अफवाह पर होता जहां अपमान नारी का
वहां यदि माँ हमारी , रंगमहलों में चली जाती
अगर अपने पती के संग महलों में चली जाती
तो नारी जाति के मस्तक पे कालिख लग गयी होती
खुली फाँसी पे नारी अस्मिता ही टंग गयी होती
किया उत्सर्ग खुद का , मान नारी का बढ़ाया है
तिलक नारीत्व के मस्तक पे माता ने लगाया है
धारा में पैठ कर माँ ने बचाया मान नारी का
पुरुष के सामने रक्खा सहज सम्मान नारी का
असह पीड़ा ह्रदय में , किन्तु यह मस्तक तना तो है
मेरा जीवन उसी माता के जीवन से बना तो है
नहीं जो कर सका कोई , किया है अम्ब सीता ने
ये उत्तर सारी दुनिया को दिया है अम्ब सीता ने
कि नारी पुरुष को जनती तो है पर जानती भी है
उसे अपना सभी कुछ हाँ सभी कुछ मानती भी है
मगर स्त्रीत्व पर जब भी कुठाराघात होता है
कुलिश पल भर में तो कोमल सरल जलजात होता है
सजा दी आपने माँ को सजा वह सह गयी राजन
पतिव्रत धर्म वाले पींजरे में रह गयी राजन
दिया दंड माँ ने वह तुम्हें प्रतिपल रुलायेगा
तुम्हें शिव का धनुष टूटा हुआ हर पल सताएगा
हुआ है और न होगा ,ऐसा पति श्रीराम से पहले
सिया का नाम आएगा तुम्हारे नाम से पहले
बताओ किस तरह हम माँ का आँचल छोड़ दें राघव
जहां बचपन गुजारा है वो जंगल छोड़ दें राघव
हमारे शब्द घायल हैं ,दहकती पीर जैसे हैं
क्षमा करना हमारे प्रश्न तीखे तीर जैसे हैं
परम विद्वान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
अगर भगवान हो तुम तो हमें कुछ भी नहीं कहना
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